मनरेगा पर सरकार का चौतरफ़ा हमला

विक्रम सिंह

बेरोजगारी और आर्थिक मंदी के इस दौर में मनरेगा की ग्रामीण भारत में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। मनरेगा ग्रामीण परिवारों को सौ दिन का रोजगार देकर उनके लिए आजीविका सुरक्षा ही सुनिश्चित नहीं करता बल्कि नागरिकों की क्रय शक्ति में इज़ाफ़ा करके बाजार में रौनक भी लाती है। मनरेगा के तहत किए जाने वाले ज्यादातर काम भूमि विकास, जल संरक्षण ,कृषि व इससे जुड़े हुए काम हैं, जिनका कृषि पर सकारात्मक असर पड़ता है। भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 इस बात की पुष्टि करता है कि मनरेगा का प्रति परिवार आय, कृषि उत्पादकता और उत्पादन संबंधी व्यय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। परन्तु देश की सरकार ज़मीनी हक़ीक़त को दरकिनार कर अपने नवउदारवादी एजेंडे को लागू करने के लिए कटिबद्ध है और नवउदारवाद की नीति मनरेगा को केवल गैरजरूरी ही नहीं मानती बल्कि देश की तथाकथित तरक्की के लिए अड़चन मानती है। इसी लिए एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 में मनरेगा की अहमियत को रेखांकित करने के बावजूद बजट में मनरेगा पर आबंटन में बड़ी कटौती की गई है।

भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मनरेगा विरोधी रुख किसी से छिपा नहीं है। प्रधानमंत्री जी तो संसद में खुले तौर पर मनरेगा का मज़ाक उड़ाते हुए इसे केवल यूपीए की विफलताओं का जीते जागते स्मारक के रूप में बनाये रखने की अपनी योजना जाहिर कर चुके हैं। हालाँकि ऐसा कहते हुए उन्होंने ‘काम के अधिकार के कानून’ (मनरेगा) की पूरी अवधारणा और महत्व को ही अस्वीकार किया था। इससे पता चलता है कि भाजपा के पास ग्रामीण भारत के विकास का कोई रास्ता ही नहीं है। भाजपा सरकार मोदी जी के कथन को लागू करने के लिए ही काम कर रही है। सैद्धांतिक तौर पर मनरेगा को ख़त्म नहीं किया जा सकता है परन्तु चौतरफा नीतिगत हमले करते हुए इसे केवल ‘ स्मारक’ में तब्दील करने में कुछ कसर भी नहीं छोड़ी है।

लगातार कम होता बजट,

मांग पर आधारित काम उपलब्ध करवाना ,मनरेगा का एक आधारभूत गुण है। इसके लिए मज़दूरों के पंजीकरण और काम की मांग के आधार पर केंद्र सरकार हर वर्ष बजट में इसके लिए आबंटन करती है। यह कोई साधारण कल्याणकारी योजना नहीं है जिसमें लाभार्थियों की संख्या सीमित व लक्षित होगी। यह तो सार्वभौमिक कानून है। किसी भी ग्रामीण परिवार के बेरोजगार वयस्क तयशुदा दिहाड़ी पर अकुशल कामगार के तौर पर इसमें प्रतिवर्ष 100 दिन का काम करने के हक़दार हैं। केंद्र सरकार का बड़ा हमला है मनरेगा के इसी पहलू को ख़त्म करने पर। और सबके लिए मांग के आधार पर 100 दिन का काम मुहैया करवाने में सबसे बड़ी बाधा है बजट की कमी।

हर वर्ष के बजट में यह साफ़ दिखता है कि यह मनरेगा के लक्ष्य को हासिल करने की जरुरत से कोसों दूर है। पिछले वर्ष ग्रामीण विकास पर संसदीय समिति ने भी मनरेगा के केंद्र सरकार द्वारा कम बजटीय आवंटन के पीछे तर्क पर सवाल उठाया है। वर्ष 2021-22 में सरकार ने मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये आबंटित किए, जो वर्ष 2020-21 के संशोधित अनुमान से 34% कम थे। वर्ष के अंत में अतिरिक्त आबंटन से संशोधित बजट अंततः यह आंकड़ा बढ़कर 98,000 करोड़ रुपये हो गया। लेकिन वर्ष 2022-23 के लिए सरकार ने एक बार फिर इस कार्यक्रम के लिए 73,000 करोड़ रुपये आबंटित किए थे। प्रत्येक वर्ष आबंटित बजट का लगभग 20% पिछले वर्ष की भुगतान में कमी को पूरा करने में चला जाता है। लेकिन केंद्र सरकार ने इस साफ़ दिख रही जरुरत को नज़र अंदाज करते हुए वर्ष 2023-24 के लिए केवल 60,000 करोड़ रुपये आबंटित किये जबकि 2023 के लिए संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपये था। अगर हम गौर से देखे तो असल में मनरेगा के लिए बजट लगातार कम हो रहा है। वित्तीय वर्ष 2009 में मनरेगा के लिए बजट कुल बजट का 3.4 प्रतिशत था जो वर्तमान में कम होकर केवल 1.3 प्रतिशत रह गया है। इस अवैज्ञानिक आबंटन का नतीजा यह है कि हर साल अक्टूबर और नवंबर महीने तक राज्यों में आबंटित बजट खत्म हो जाता है, जिससे रोजगार का संकट पैदा हो जाता है| इसका सीधा असर होता है मज़दूरों के काम के दिनों में कटौती और मज़दूरी भुगतान में देरी। विभिन्न अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार मनरेगा में वर्तमान जॉब कार्ड धारकों को 100 दिन का काम मुहैया करने के लिए कम से कम 2.72 लाख करोड़ रुपये के सालाना आबंटन की जरुरत है।

काम के दिनों में कमी और देरी से भुगतान

कम बजट के चलते मांग बढ़ने के बावजूद मनरेगा मज़दूरों के लिए प्रतिवर्ष काम के