महिला पहलवानों के यौन शोषण के खिलाफ आन्दोलन के बारे में बहुत कुछ लिखा- कहा जा चुका है। असल में यह आन्दोलन एक मुश्किल चरण पहले ही पार कर चुका है जहां उसका सामना हुआ भाजपा और उसके प्रचार तंत्र द्वारा देश में किसी भी जन आन्दोलन के बारे में अपनाई जाने वाले निश्चित रणनीति से। भाजपा नेताओं और मजदूरी पर रखे गई ट्रोल आर्मी द्वारा फैलाई गए तमाम तरह के दुष्प्रचारों और हमलों के सामने आन्दोलनकारी डट कर खड़े रहे। आन्दोलन को तोड़ने के लिए जातीय ध्रुवीकरण का संघीय इस्तेमाल हो चुका है। आंदोलनकारियों के चरित्र और उपलब्धियों पर बड़े सवाल खड़े किए जा चुके हैं। गोदी मीडिया भी अपने पूरे हथकंडे अपना रहा है लेकिन फिर भी केवल कुछ पहलवानों द्वारा शुरू यह आन्दोलन मज़बूत और व्यापक होता जा रहा है। इसे समाज के तमाम तबकों का समर्थन मिल रहा है।  

देश के यह शीर्ष खिलाड़ी अपना पूरा भविष्य दांव पर लगाकर एक मज़बूत और शक्तिशाली राजनेता के खिलाफ संघर्ष में है, यह कोई छोटी बात नहीं है। कोई भी तर्कशील इंसान इनकी हिम्मत के साथ खड़ा होगा। इनकी बहादुरी की सराहना तो शब्दों से परे है लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है, इनकी लड़ाई का मकसद। अब यह लड़ाई केवल महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण की नहीं रह गई है बल्कि इस लड़ाई में हमारे देश की करोड़ों महिलाएं अपनी लड़ाई देख रही हैं।

यह संघर्ष है उस मनुवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ जो महिला को केवल एक शरीर समझती है और पुरुष को पूरा अधिकार देती है उनकी देह पर। उस असमानता के विचार के खिलाफ जंग है जो महिला को गिद्ध की तरह नोचने के लिए तेयार रहता है समाज के हर स्थान पर; चाहे यह उसका घर हो, उसका शिक्षण संंस्थान या उनका कार्यक्षेत्र। यह लड़ाई है मनुवादी उस व्यवस्था से जो महिला के स्वतंत्र वजूद को ही नकारता है। मनुस्मृति के अनुसार “लड़की, युवती या वृद्धा को भी अपने घर में भी स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं करना चाहिए। बाल्यकाल में स्त्री को पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन और पति के मर जाने पर पुत्रों के अधीन रहना चाहिए।”

इन खिलाड़ियों की आवाज में शामिल है उन अनेकों युवतियों की आवाजें जो कभी उनके लबों से बाहर न आ सकी- जब उनको तय करना पड़ रहा था उनके तथाकथित वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा उनके यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने और उनके अपने कैरियर के बीच का विकल्प। कितनी ही युवतियाँ तमाम पारिवारिक बाधाओं को पार कर प्रतियोगी परीक्षा को जीत कर एक सुनहरे भविष्य का सपना लिए पहुंचती है अपने कार्यस्थल पर। वह देश की सबसे उच्च पदों पर आसीन भारतीय सेवा अधिकारी हो सकती है, न्याय व्यवस्था में कार्यरत जज या अफसर हो सकती है,  कोई सरकारी क्लर्क हो सकती है, मीडियाकर्मी  या किसी प्राइवेट कंपनी में कर्मचारी हो सकती है।

सबकी कहानी एक जैसी ही है। उनके कार्यस्थल पर उनके सहयोगियों से लेकर उनके वरिष्ठ अधिकारियों तक की नज़र टिकी रहती है उनकी देह पर। अपनी ताकत और पद का उपयोग कर महिला के साथ यौन शोषण करना यह अपना हक समझते हैं। और यह कोई रहस्य नहीं है। दफ्तरों में पुरुषों की खुली चर्चा में इसका जिक्र होता है, कैंटीन में शेखी बघार कर इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनाया जाता है। 

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की अगस्त 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में लगभग हर दूसरी महिला ने अपने जीवन में कम से कम, एक बार कार्यस्थल पर यौन शोषण का किसी रूप में सामना किया है, लेकिन इनमे से 55% से ज्यादा ने कभी भी कहीं भी इसके खिलाफ रिपोर्ट नहीं की है। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश में कार्यस्थलों पर यौन शोषण के 70.17 लाख मामले दर्ज थे। हम सब जानते हैं कि यह असल घटनाओं का एक हिस्सा भी नहीं है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार देश के शीर्ष 100 प्राइवेट कंपनियों में बहुत ज्यादा यौन शोषण होता है। विश्व बैंक ने 2022 में हमारे देश के कुछ महानगरों में एक सर्वे किया था जिसकी रिपोर्ट ‘स्ट्रीमलिनिग ग्रिएवांस रेड्रेस्सल मैकेनिज्म’ के रूप में प्रकाशित की गई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार देश की राजधानी  दिल्ली में सर्वे में शामिल महिलाओं में से 88 प्रतिशत ने यौन शोषण का सामना किया है। इनमें से केवल एक प्रतिशत ने इसकी कोई शिकायत की है।

यह सब महिलायें अपने कैरियर को खतरे में न डालने के चलते मर जाती हैं एक मुर्दा शांति से और सब कुछ सहन कर जाती हैं। इन्होंने देखे हैं, सुने ऐसे अनेको किस्से जहां पर किसी महिला ने हिम्मत करके इस यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाई थी और इस समाज ने कैसे उसे ही दण्डित किया। सभी खड़े हुए थे शोषक के साथ। इन सब घुटी हुई आवाजों को कंठ दे रहे हैं हमारे खिलाड़ी। इनमे भी आश जगी है न्याय की। वह महिला खिलाडियों के संघर्ष में अपने को देखती हैं और समर्थन कर रही हैं इस जंग में अपने ही जैसी पीड़ितों का। 

हर साल जब दसवीं या बारहवीं कक्षा के परिणाम घोषित होते हैं तो टेलीविज़न और अखबार छात्राओं की कामयाबी की खबरों से भरे होते हैं। मेरिट लिस्ट में छात्राओं की अधिक संख्या और समाचारों में उनकी बेहतरीन कहानियों से एक तस्वीर उभरती है। इससे आभास होता है कि शायद देश में लड़कियों को बहुत प्रोत्साहित किया जाता है और सहजता से समाज के सभी क्षेत्रों में जा सकती है। यह तस्वीर सच्ची नहीं है। यह कहानियां हैं कुछ छात्राओं की जो अपवाद हैं।

वह कड़ी मेहनत और सब मुसीबतों को पार कर यहां तक पहुंची है। बिलकुल उन महिला खिलाड़ियों की तरह जो हरियाणा जैसे सामंती राज्य से अपनी मेहनत से विपरीत परिस्थितियों से लड़ कर मेडल हासिल करती हैं तो प्रधानमंत्री भी उनसे बात करते हैं। उनके साथ तस्वीरें खिचवाते हैं। उनकी सफलता का श्रेय लेने का पूरा प्रयास करते हैं कि उनके राज में महिलाओं के लिए बेहतरीन वातावरण सृजित किया गया है। लेकिन जब वही खिलाड़ी यौन शोषण के खिलाफ न्याय के लिए सड़क पर एक महीने से हैं तो सरकार और प्रधानमत्री के लिए जैसे उनका अस्तित्व ही नहीं है।

हमारे देश में छात्राओं को शिक्षण संस्थानों, स्कूलों, महाविद्यालयों, यहां तक कि उच्चतर शिक्षण संस्थानों ‘विश्वविद्यालयों’ में भी यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है। यह कहानी शुरू हो जाती है घर से शिक्षण संस्थान के लिए जाने वाले रास्ते से। गांव हो या शहर, छात्राएं सड़कों पर असुरक्षा के भाव में यात्रा करती हैं। चाहे गांव की सुनसान सड़क हो या महानगरों की खचाखच भरी बसें और मेट्रो, छात्राएं डरी रहती हैं। अपने आप को छुपाने का प्रयास करती हैं लोगों की नज़रों से, भीड़ का फायदा उठाकर उन तक पहुंचने वाले हाथों से, उनका पीछा करते हुए कदमों से। कितनी ही छात्राएं बस में असहज होने के वावजूद भी चुप रहती हैं। जब कोई उनको छूता है, फब्ती कसता है, अपने को उनपर थोपता है, वह भीड़ में भी चुप रह जाती हैं। क्योंकि इस भीड़ में भी वह अपने को अकेला पाती हैं। चिंता है कि शायद भीड़ में तो कोई उनका पक्ष ले भी ले, लेकिन घर पर पता लगने पर पढ़ाई उनकी ही छूटेगी।

कितनी ही शोध छात्राएं यौन शोषण का शिकार होती हैं। इन अनुभवों का अपनी दिनचर्या में सामना करने वाली छात्राएं संघर्षरत खिलाड़ियों के समर्थन में आ रही हैं। वह जानती है कि यह आरोपी बृजभूषण शरण सिंह जैसे लोग हर जगह हैं। इस लड़ाई से महिलायें इन जैसे लोगों से अपने को मुक्त करवाना चाहती हैं। वह लड़ रही हैं उस व्यवस्था के खिलाफ जहां लोग आवाज उठाने पर बृजभूषणों का  साथ देते हैं और पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा करते हैं। 

हालांकि कानून के अनुसार सभी कार्यस्थलों पर आन्तरिक शिकायत कमेटी का गठन करना अनिवार्य है। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसी अनिवार्यता कभी लागू नहीं होती। ज्यादातर कार्यस्थलों पर कमेटी बनी ही नहीं है। जहां खानापूर्ति की गई है ,वह सक्रिय नहीं है। यह तो हुई संगठित क्षेत्र की बात लेकिन हमारे देश में 95% महिलायें असंगठित क्षेत्र में काम कर रही हैं और यहां यौन शोषण की शिकायत के लिए एक कमेटी तक नहीं है ।

अब कल्पना कीजिये ग्रामीण भारत में उन महिला खेत और ग्रामीण मज़दूरों की। एक ऐसे समाज में जहां कहावत है कि ‘गरीब की जोरू- सारे गांव की भौजाई’ वहां पर इन महिला मज़दूरों की असुरक्षा का आलम क्या होगा, जिनके जीवन में गरीबी के साथ साथ जातीय उत्पीड़न भी शोषण का एक साधन है। इनके लिए तो कोई कमेटी नहीं हैं सुनवाई करने के लिए।  यह हिम्मत करें भी तो कैसे? क्योंकि अगर मुँह से आवाज निकली तो यह काम से निकाल दी जाएंगी। जातीय समाज में दलित महिला की सुनेगा भी कौन? इनके लिए तो कानून के दरवाजे हमेशा बंद मिलते हैं जिसकी एक मिसाल पेश की है हाथरस में सामूहिक बलात्कार की शिकार खेत मजदूर परिवार की दलित युवती के केस और अदालत के फैसले ने।

जब पूरा देश घटना के बारे में जानता है। पीड़िता ने मरने से पहले बयान दिया ,जिसे कानून नहीं नकार सकता, तब भी न्यायालय की नज़र में किसी ने बलात्कार नहीं किया और केवल गैर इरादतन हत्या हुई है। यह है मनुवाद जो सबसे ऊपर है। यह महिला खेत और ग्रामीण मज़दूर भी अपने आप को स्वत: ही आंदोलन में शामिल पा रही है। उनके लिए यह साक्षी, विनेश या पांच शिकायत करने वाली खिलाड़ियों की लड़ाई नहीं बल्कि अपने गांव में खेत में काम करने वाली हर महिला की लड़ाई है। 

यौन शोषण के खिलाफ बोलना बहुत ही मुश्किल होता है विशेष तौर पर हमारे जैसे समाज में। यह बात तो शोध में भी सामने आई है। विश्व बैंक के शोध (‘स्ट्रीमलिनिग ग्रिएवांस रेड्रेस्सल मैकेनिज्म’) जिसका जिक्र ऊपर किया गया है, में यह भी सामने आया कि यौन शोषण के मामलों में महिला के शिकायत न करने के मुख्य कारण है कि बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहतीं है, उनको पता ही नहीं है कि शिकायत कहां और कैसे करनी है, यौन शोषण और छेड़छाड़ की श्रेणी में कौन से व्यवहार आते हैं वह तय नहीं कर पातीं, आरोपियों द्वारा भविष्य में सताए जाने का डर आदि। लेकिन इन सब में से महत्वपूर्ण है पीड़ितों का सामाजिक कलंक लगने का डर। हो सकता है सामान्य मामलों में तो फौरी तौर पर आरोपी के खिलाफ सब बोले लेकिन निर्णायक तौर पर पीड़िता को ही दोष दिया जाता है। और यहां आरोपी रसूखदार हो वहां तो समाज और सरकार भी आरोपी के साथ खड़े हैं।

सामान्यतः महिलायें समझ ही नहीं पाती कि यौन उत्पीड़न किसे माना जाये। यह उन पर समाज का प्रभाव होता है कि स्पष्ट रूप से असहज महसूस करने के बाद भी वह इसके खिलाफ शिकायत करने का निर्णय नहीं ले पाती। ‘यह कौन सी बड़ी बात है’ जैसे वाक्य उनके मन में ज्यादा दुविधा पैदा करते है। हालांकि भारतीय क़ानून में ‘किसी के मना करने के बावजूद उसे छूना, छूने की कोशिश करना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, सेक्सुअल भाषा वाली टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफ़ी दिखाना या कहे-अनकहे तरीक़े से बिना सहमति के सेक्सुअल बर्ताव करना’- को यौन उत्पीड़न माना गया है।

साल 2013 में ‘सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वुमेन ऐट वर्कप्लेस (प्रिवेन्शन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल)’ लाया गया, जो ख़ास तौर पर काम की जगह पर लागू होता है। इसमें काम की जगह पर उपरोक्त विवरण को यौन उत्पीड़न के रूप में परिभाषित किया गया है। यहां की जगह में  मीटिंग की जगह या घर पर साथ काम करना, ये सब शामिल है।

यौन शोषण और इसके डर का महिलाओं के दिमाग और जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार यौन उत्पीड़न की पीड़ित महिलाओं में डिप्रेशन का खतरा तीन गुना बाद जाता है। उनमें नींद विकार के विकार और उच्च रक्तचाप हो जाता है। वह तनाव में रहती है। उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कमी आती है। इसका सीधा प्रभाव उनके काम पर भी पड़ता है। कार्यस्थल या रास्ते में यौन उत्पीड़न से बचने के लिए वह काम से छुट्टी लेना शुरू कर देती हैं। वह अपने काम को नापसंद करने लगती है और इससे असंतुष्ट रहने लगती है। मनोवैज्ञानिक तौर पर परेशान रहने के कारण वह शारीरिक थकान ज्यादा महसूस करने लगती है। इससे इनकी कार्यक्षमता पर असर पड़ता है। 

ऐसे में महिलाओं को किसी भी तरह के यौन शोषण के खिलाफ लड़ने, इसके लिए कहां और कैसे शिकायत करनी है इसकी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए ।लेकिन यहां तो जो महिलाएं हिम्मत करके लड़ रही हैं उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। महिला पहलवानों का आन्दोलन भी सामंती समाज से नहीं बचा। इसमें भी पीड़ितों के ही चरित्र पर सवाल खड़े करने की मुहिम चली। अब किसी बम बम महाराज ने दिल्ली के पटियाला कोर्ट में साक्षी मालिक, विनेश फोगाट और बजरंग पुनिया के खिलाफ अर्जी दाखिल की है कि उन्होंने सांसद बृजभूषण शरण सिंह और प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रामक प्रचार किया है। 

हालांकि इस मामले में प्रिया रमानी  बनाम एमजे अकबर में दिल्ली की अदालत की टिप्पणी से सारी डिबेट पहले ही स्पष्ट हो चुकी है। मानहानि के मामले पत्रकार प्रिया रमानी को बरी करते हुए अदालत ने कहा था  कि किसी व्यक्ति की ‘प्रतिष्ठा की सुरक्षा किसी के सम्मान की कीमत पर नहीं की जा सकती।’ यह तो हुई कानून की बात लेकिन यह संघी गिरोह न तो कानून की परवाह करता है और न ही समानता के मूल्यों की। इसलिए और ज्यादा जरुरी हो जाता है यौन शोषण के खिलाफ इस आंदोलन का जीतना।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं की समानता की इस लड़ाई में हार केवल आंदोलनकारियों की नहीं होगी बल्कि जनवाद, समानता और न्याय के मूल्यों पर आधारित हमारे संविधान की भी होगी। अगर इस मामले में आरोपी छूट गया तो यह पूरे देश में महिलाओं को यौन शोषण के खलाफ आवाज उठाने के लिए हतोत्साहित करेगा। यह हौसला बढ़ाएगा मनुवादी पुरुष प्रधान सोच रखने वालों का। देश में अगर नामी खिलाड़ियों को न्याय नहीं मिला तो असंख्य आंखों में भी मर जाएगी न्याय पाने की आशा की किरण। इसलिए इस लड़ाई में देश को जीतना होगा।