हर नागरिक के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता के समर्थन में दावा किया जाता है कि सरकार के पास प्रत्येक नागरिक की जानकारी है और इसका मकसद नागरिकों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करना है। अदालतों के फैसलों के बावजूद लाभकारी योजनाओं के लिए आधार लागू कर दिया गया है और हमने देखा है कि कई बार यह नागरिकों को अनिवार्य मूलभूत सेवाओं से वंचित करता है। सरकारों के पास नागरिकों के बारे में इतनी ज्यादा जानकारी है और वह नागरिकों की इतनी ज्यादा निगरानी कर रही है कि कई राजनीतिक टिप्पणीकार देश को ‘निगरानी राज्य’ (सर्विलेंस स्टेट) की तरफ बढ़ने का खतरा जता रहे हैं।
लेकिन नागरिकों को सुविधाएं पहुंचाने के सारे दावे खोखले हैं। क्योंकि देश में ऐसे कई सामाजिक समूह हैं जिनकी ज़िम्मेदारी कोई सरकार या प्रशासन नहीं लेता। तमाम तरह के पहचान पत्र होने के बावजूद भी उनके जीवन का रिकॉर्ड किसी निकाय के पास न होने के कारण वे नागरिक अधिकारों से महरूम हैं। ऐसी ही एक बस्ती है महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले की मुखेड तालुका में। मुखेड नगर पालिका के अशोक नगर वार्ड में लगभग 67 परिवार रहते हैं जिनकी जिम्मेवारी नगर पालिका नहीं लेता। उनके रिकॉर्ड के अनुसार वह नगर पालिका का हिस्सा ही नहीं है। दूसरी तरफ निकटवर्ती पंचायत में भी वह नहीं आते हैं। यहां पर कुल मिलकर 700 से ज्यादा लोग रहते हैं जो वडार जाति से संबंध रखते हैं जो मूलत: खानाबदोश (मराठी में भटके-विमुक्त) रहे हैं। घुमंतू जीवन के चलते वे कभी लंबे समय के लिए एक जगह पर नहीं रहते थे। सामान्यत: जहां काम होता है ,वहीं झोंपड़ी बन जाती है और काम ख़त्म होने पर दूसरी जगह चल पड़ते हैं। महाराष्ट्र में वडार सहित घुमंतू लोगों की दो श्रेणियाँ हैं। सामान्यत:इन्हें NT (घुमंतू जनजातियां) और VJNT (Vimukta Jati and Nomadic Tribes, विमुक्त जातियां एवं घुमंतू जनजातियां) कहा जाता है। वडार दूसरी श्रेणी VJNT में आती है। दोनों ही घुमंतू समूहों की जातियां अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल की गई हैं।


वडार जाति के लोगों रका मुख्य पेशा पत्थर तोड़ना होता था। यह पत्थर इमारतें बनाने और सड़के बनाने के लिए इस्तेमाल होते थे। पिछले दशकों में सड़कों का जो जाल देश में फैला है , उनमें इनको काम मिलता था – बड़े पत्थरों को तोड़ कर सड़क बनाने के लिए रोड़ी तैयार करना। हालांकि काम मेहनत और जोखिम भरा था लेकिन इनके जीवन का हिस्सा बन गया था। हाथों की उंगलियों में जख्म होते लेकिन चेहरे पर मुस्कान होती थी क्योंकि अपने काम से इनको लगाव था। बजरंग नगर में 75 वर्षीय हणमंत विडे गोटे रहते हैं। पुराने दिनों की याद करते हुए उनके चेहरे का रंग खिल जाता है जिससे पता चलता है कि वह अपने काम से कितना लगाव करते हैं। वह बताते हैं, “उन दिनों घरों के बनाने में पत्थर का प्रयोग होता था। दीवारों में सरिये के बीम की जगह बड़े -बड़े पत्थर लगाए जाते थे। हम पूरे पत्थर को काट कर एक बड़ा पीस तैयार करते थे। मुख्य काम तो सड़कों को पक्की करने से पहले रोड़ी का ही था। इसके लिए बड़े पत्थरों को तोड़ कर छोटे पत्थर (कंक्रीट) तैयार किये जाते थे। एक समय खूब काम था। लेकिन अब तो काम ही नहीं है। पत्थर तोड़ने का सारा काम तो मशीन से होने लग गया। बड़े बड़े स्टोन क्रेशर से पत्थरों के अलग -अलग आकार की रोड़ी तैयार होती है। हमारा तो काम ही छिन गया है।” यह कहते- कहते उनके चेहरे की चमक गायब हो गई और एक मायूसी और अनिश्चितता के भाव ने उसका स्थान ले लिया।


इनके पास खूब काम था, बस एक दिक्कत थी कि कोई स्थायी ठिकाना नहीं था। जहां काम मिला वहीं निकल गए। न कभी घर बना और न ही जरुरत महसूस हुई। पक्के सर्वहारा थे। पूंजी के नाम पर केवल मेहनत। मज़दूरी से जो मिलता परिवार का पेट पालते, कोई संपत्ति नहीं। लेकिन जब काम कम होने लगा और विकास के साथ इनको भी अपना घर बनाने की जरुरत महसूस हुई तो पाया कि इनके पास तो अपना कहने के लिए कोई गांव या शहर है ही नहीं। यह हालात सभी प्रदेशों में सभी खानाबदोश जातियों ने देखी है। जिसको जहां मौका मिला वे वहीं बस गये। इसी तरह आज से कोई चार दशक पहले यह लोग मुखेड में आकर रूक गए थे। यहीं बस गए। तब शहर, सड़कें, ईमारतें छोटी थी। शहर बड़ा हो गया, सड़कें बन गईं। लेकिन दशकों बीत जाने पर भी न तो शहर और न ही निकटवर्ती गांव इनको अपना सके। वैसे सबके वोट बने हैं, मतदान भी करते हैं लेकिन नागरिकों के तौर पर इनकी जिम्मेवारी कोई नहीं लेता।


जीवन की आधारभूत सुविधाएं भी कभी अधिकार के तौर पर नहीं मिली। कभी किसी नेता को वोट की जरुरत महसूस हुई तो बिजली आ गई और कभी किसी अधिकारी को तरस आया तो रास्ता पक्का हो गया लेकिन किसी ने नीतिगत हस्तक्षेप नहीं किया। कुछ वर्ष पहले पेयजल की समस्या को लेकर लोग संगठित हुए। मज़दूरों के संगठन ने मीटिंग करके तहसीलदार कार्यालय के सामने धरना दिया। ज्ञापन सौंपने के बाद अधिकारी के साथ वार्ता में पता चला कि नगर पालिका के अनुसार इनके घर तो गैर क़ानूनी हैं और रिकॉर्ड में यह लोग यहां हैं ही नहीं। जिस ज़मीन पर रहते हैं वह कृषि भूमि है ,जिस पर घर बनाने की अनुमति नहीं है और बिना अनुमति के घर बनाये हैं ,मवह नियमित नहीं हैं। इसलिए नगर पालिका कोई सुविधा नहीं दे सकता। इन पर तो गाज गिर गई। पूरे जीवन की मेहनत की कुल जमा पूंजी है इनके छोटे -छोटे कच्चे पक्के घर। ये भी गैर क़ानूनी हैं। फौरी तौर पर आंदोलन के चलते वडार बस्ती में पानी का नल तो लग गया लेकिन देश में विकास की पोल खुल गई जहां इंसान राजनेताओं के लिए केवल वोट हैं न कि नागरिक।


हणमंत विडे गोटे बताते हैं कि यह लोग मुखेड में अस्सी या फिर नब्बे के दशक में आये थे। उन्हें साल याद नहीं है लेकिन यह याद है कि जब इंदिरा गांधी का देहांत हुआ तो वह मुखेड में ही थे। इससे पहले इन सब का लातूर जिले की अहमदपुर तालुका की तैम्बुरनी पंचायत में ठिकाना था। शायद जन्म भी वहीं हुआ था। हणमंत शादी से पहले ही यहां आ गये थे। जब आए थे तो जहां अभी बस्ती है ,वीरान जगह थी। कुछ वर्ष मुखेड की अलग -अलग जगह रहने के बाद लोगों ने यहां घर के लिए ज़मीन खरीदना शुरू कर दिया। इस बस्ती की ज़मीन के दो तीन संयुक्त मालिक थे। उनसे लोगों ने चार से पांच हज़ार रुपए में घर के लिए ज़मीन खरीदी। कुछ के नाम रजिस्ट्री हो गई लेकिन ज्यादातर को केवल नोटरी या साधारण बांड पेपर पर हलफनामा मिला कि ज़मीन इनको बेच दी गई है। लोगों ने छोटी मोटी झोंपड़ी बनाना शुरू कर दिया और आजीविका के लिए वैकल्पिक काम भी शुरू कर दिए। सड़क के लिए पत्थर तोड़ने के काम के लिए भी यहीं से जाते और काम ख़त्म करके दो चार महीनों में यहीं वापिस आते। यही इनका ठिकाना हुआ।


अपनी तरफ से तो इन्होंने ज़मीन खरीदी और सारी प्रक्रिया अपनाई लेकिन देश के कानून की जटिलताओं से यह अनभिज्ञ थे। समय के साथ इनको अनुभव होने लगा। हर चुनौती के बाद ऐसा लगता कि अब तो बात पक्की बन गई है और यह यहां के नागरिक हो गए। इस बस्ती के लोग वर्तमान संकट पहले भी एक बार झेल चुके हैं ,जब अगस्त 1994 में यहां पर रहने वाले परिवारों को नोटिस भेजा गया था कि उनके घर गैर क़ानूनी हैं। इसके बाद बस्ती का एक सर्वे किया गया और 13 अगस्त 1994 को सर्वे रिपोर्ट दी गई। इस रिपोर्ट के आधार पर सब परिवारों के लिए व्यक्तिगत (अलग -अलग) सूचना आदेश निकाले गए। ऐसा ही एक आदेश हणमंत को भी मिला था जिसमें लिखा गया था कि जिस ज़मीन पर उनका घर बना है वह कृषि की ज़मीन है। ज़मीन का इस्तेमाल जिसे लैंड यूज़ चेंज कहते है, नहीं बदलवाया गया है। इसके अलावा घर बनाने से पहले नगर पालिका से स्वीकृति नहीं ली गई थी। इसलिए घर की इमारत नियमित नहीं है। परिवारों को गैरकृषि मूल्यांकन के लिए 19 पैसे प्रति वर्ग मीटर प्रति वर्ष के हिसाब पैसे जमा करवाने के लिए आदेश दिए गए थे। इसके अलावा इस अपराध के लिए गैरकृषि मूल्यांकन के पांच गुना रकम जुर्माने के तौर पर जमा करवाने के लिए कहा गया था। हालांकि यह स्पष्ट किया गया था कि यह पैसे जमा करवाने का मतलब घरों का नियमतीकरण कतई नहीं है। हां, एक छूट दी गई थी कि जो परिवार घरों का नियमतीकरण करवाना चाहते हैं वह उपयुक्त सक्षम प्राधिकारी/ जिला अधिकारी कार्यालय के पास छः महीनों के भीतर अपील करें।
इसके बाद लोगो ने प्रशासन के आदेश अनुसार पूरी प्रक्रिया अपनाई और अक्टूबर 1994 को जिलाधिकारी कार्यालय से प्रार्थियों को पत्र मिले कि उनके घरों की ज़मीन का ‘लैंड यूज़’ बदल दिया गया है और घरों का नियमितीकरण हो गया है। इन पत्रों की प्रति नगर पालिका को भी भेजी गई थी। लोग भी निश्चिंत हो गए कि बड़ा कानूनी मामला निपट गया और अब वह अपने घरों में सुकून से रह सकते हैं। लेकिन वर्तमान प्रकरण ने फिर बस्ती के लोगों को हिला कर रख दिया। अनिश्चितता के बादल और अधिकारियों का डर सताने लगा। लोगों ने अपने कागज़ खोजने शुरू किये। जब मिले तो नगर पालिका के तहसीलदार से गुहार लगाई परन्तु साहिब ने तो ख़ारिज कर दिया कि ऐसे पत्रों को वह नहीं मानते और न ही उनके पास इसका रिकॉर्ड है। कार्यालय पर प्रदर्शन के बाद ज़िलाधीश ने सहानुभूति तो दिखाई लेकिन बेतुकी मज़बूरी बताई कि सारी शक्तियां निचले स्तर पर हैं। हालांकि परोपकार करते हुए तहसीलदार को फ़ोन कर दिया। नगर पालिका में जाने के बाद फिर वही जवाब कि उनके रिकॉर्ड में तो बस्ती के घर दर्ज ही नहीं है उल्टा कार्यवाही की चेतावनी दे दी। लोग हताशा में एक सरकारी दफ्तर से दूसरे कार्यालय के चक्कर काट रहे हैं। वहीं अफवाहों का फायदा उठाते हुए कई सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार से पैसे कमाने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे हैं। ऐसे ही एक इंजीनियर ने पार्वती बाई पिराजी विडेघोटे से घर के नियमितीकरण और नक़्शे के नाम पर10000 रुपये भी ऐंठ लिए। ऐसी कई कहानियां हैं इस बस्ती की।


कुल मिलाकर लोग परेशान हैं। एक तो विकास की प्रक्रिया में पुश्तैनी काम उनसे छिन गया। देश की चुनी हुई सरकारों ने तो इनके लिए कोई वैकल्पिक रोजगार सोचा नहीं। सरकारों के लिए तो इनका अस्तित्व ही कहां है। विकास का जो रास्ता देश की सरकार ने चुना है उसने रोजगार ख़त्म किया है। यह बस्ती अघोषित लेबर चौक की तरह बन गई है जहां सस्ते मज़दूर मिल जाते हैं। लोग सुबह आते हैं और मज़दूरों को काम के लिए ले जाते हैं। यह सभी तरह के अकुशल काम करते हैं। जिस दिन काम नहीं मिलता तो परिवार के खाने की चिंता गहरी हो जाती है। अब ऊपर से यह संकट आ गया है। सब पार्षदों और विधायकों के चक्कर काट लिए। केवल आश्वासन और झूठ मिला लेकिन कोई हल करने के लिए आगे नहीं आया।


ऐसी ही कई बस्तिया हैं देश में जो अपनी पहचान खोज रही हैं। यह हमारे शहरों का दिशाहीन विकास भी है जिसमें राजनीतिज्ञ मार्गदर्शन के आधार पर अधिकारी यांत्रिक तौर पर लागू करते हैं लेकिन नागरिकों की असल समस्या हल नहीं होती। इन नागरिकों को नागरिक न मान कर केवल मतदान के समय कुछ सुविधाएं दिला दी जाती हैं लेकिन नीति कभी नहीं बनती।


हज़ारों साल पहले घुमंतू होमो सेपिंस अफ्रीका से निकलकर पूरे विश्व में फ़ैल गए। कई जगह पर अपने चचेरे भाइयों (जीनस होमो की अन्य प्रजातियां) से टकराव भी हुआ लेकिन जहां भी गए वहां के निवासी बनते गए। प्रकृति ने उनको स्वीकार कर लिया। हमारे उपमहाद्वीप में भी आधुनिक मानव आया और बस गया। इसके बाद भी कई प्रवासी आए। अभी कुछ शताब्दियों पहले तक प्रवासी आते गए और यहां बसते गए। सभ्यता के विकास से पहले और बाद भी स्थाई निवासी बनते गए लेकिन आधुनिक सभ्यता के दौर में हम अपने घुमंतू समूहों को नागरिकों के समान नहीं मान रहे हैं। उन्हें आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है। क्या यह देश उनका नहीं या उनके लिए कोई अलग संविधान है। बजरंग बस्ती के लोगों ने ठान लिया है कि देश पर उनका भी पूरा हक़ है। नागरिक होने के लिए संघर्ष भी करेंगे और सरकारों से मोर्चा लेंगे अपने हिस्से के हक़ और संसाधनों के लिए।