काकोरी का नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की वजह से प्रसिद्ध हुआ या अशफ़ाक़ उल्ला का नाम काकोरी कांड के वजह से प्रसिद्ध हुआ ।यह तो नहीं पता लेकिन काकोरी और अशफ़ाक़ उल्ला के नाम को एक दूसरे से अलग करना दूध  में से पानी को अलग करने के बराबर होगा।

        काकोरी युग के क्रांतिकारियों में अशफ़ाक़ उल्ला सबसे अधिक प्रगतिशील विचारों के थे। अशफ़ाक़ उल्ला का जन्म 22 अक्टूबर 1900 ई  को शाहजहाँपुर,उत्तर प्रदेश के मुहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ के परिवार में हुआ था। चार भाइयों में से अशफाक सबसे छोटे थे। अशफ़ाक़ बचपन से ही देश के लिए कुछ करना चाहते थे। बंगाल के क्रांतिकारियों का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ कविता भी लिखते थे।उन्हें घुड़सवारी, निशानेबाजी और तैराकी का भी शौक था। अशफ़ाक़ उल्ला ने जब क्रांतिकारी जीवन में प्रवेश किया तो वह छात्र ही थे।

                   1918 में, अशफ़ाक़ उल्ला जब सातवीं कक्षा में थे पुलिस ने उनके स्कूल पर छापा मारा और मैनपुरी षडयंत्र के संबंध में छात्र राजाराम भारतीय को गिरफ्तार कर लिया, जिसमें कार्यकर्ताओं ने उपनिवेश विरोधी साहित्य के प्रकाशन के लिए मैनपुरी में लूटपाट का आयोजन किया था।तबसे ही अशफ़ाक़ उल्ला ने संयुक्त प्रांत में काम करने वाले क्रांतिकारी समूहों की तलाश शुरू कर दी।उन्होंने अपने मित्र बनारसी लाल (जो बाद में काकोरी षड्यंत्र मामले में सरकारी गवाह बन गए ) से उन्हें राम प्रसाद बिस्मिल से मिलवाने के लिए कहा, जिन्हें मैनपुरी षड्यंत्र मामले में भगोड़ा घोषित किया गया था।

             अशफ़ाक़ की क्रांतिकारी राजनीति में रुचि तब गहरी हुई जब उन्होंने आठवीं कक्षा में वाल्टर स्कॉट की कविता ‘लव ऑफ कंट्री’ पढ़ी। अशफ़ाक़ के सामने अब देशभक्ति बहुत बड़ी चीज थी। वे मन ही मन सोचते ,मैं भी क्रांतिकारी बनूँगा, देश की आजादी के लिए मर मिटने वाला सच्चा क्रांतिकारी। 

                1920 में बिस्मिल शाहजहाँपुर लौट आए।खन्नौद नदी के किनारे एक सभा में बिस्मिल और अशफ़ाक़ की मुलाकात हुई और यहीं से दोनों में ऐसी दोस्ती हुई जो उनकी मृत्यु के साथ समाप्त हुई।

            सबको आश्चर्य हुआ कि एक कट्टर आर्यसमाजी और मुसलमान का मेल कैसा। रामप्रसाद बिस्मिल मुसलमानों की शुद्धि करता था। आर्यसमाज मंदिर में उसका निवास था, लेकिन अशफ़ाक़ उल्ला उनसे मिलने आर्य समाज मंदिर में आते जाते थे। हिंदू मुसलमान झगड़ा होने पर कई बार लोग उन्हें काफिर के नाम से पुकारते, पर इन बातों का अशफ़ाक़ उल्ला पर कोई असर नहीं पड़ता।अशफ़ाक़ उल्ला शुरू से ही हिंदू मुस्लिम एकता के पक्ष में रहे।

           बिस्मिल के अनुसार अशफ़ाक़ के जीवन में यदि कोई विचार था तो यह कि” मुसलमानों को खुदा अकल देता कि वह हिंदुओं के साथ मिलकर हिंदुस्तान की भलाई करते”। (“अशफ़ाक़उल्ला और उनका युग” लेखक – सुधीर विद्यार्थी,पेज-26, राजकमल प्रकाशन)

            अशफ़ाक़ और बिस्मिल ने मिलकर असहयोग आंदोलन में भाग लिया, स्वराज पार्टी के लिए प्रचार किया और हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के बैनर तले क्रांतिकारी उपनिवेशवाद विरोधी सक्रियता में लगे।क्रांतिकारी जीवन में पदार्पण करने के बाद से अशफ़ाक़ उल्ला सदा प्रयत्न करते रहे कि उनकी तरह और भी मुस्लिम नवयुवक क्रांतिकारी दल के सदस्य बने।हिंदू मुस्लिम एकता के वह बहुत बड़े समर्थक थे।वह समाजवादी समाज का निर्माण करना चाहते थे।उन्होंने कहा था —–“मैं हिंदुस्तान की ऐसी आज़ादी का ख्वाहिशमंद था जिसमें गरीब खुश और आराम से रहते और सब बराबर होते”। (“अशफ़ाक़ उल्ला और उनका युग” लेखक -सुधीर विद्यार्थी, पेज- 11,राजकमल प्रकाशन)

             अशफ़ाक़ उल्ला जानते थे कि यदि देश के लिए लड़ाई लड़नी है तो मजदूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा और उन्हें लड़ाई के लिए संगठित करना होगा।उन्होंने लिखा है—– “मेरा दिल गरीब किसानों और दुखिया मज़दूरों के लिए हमेशा दुखी रहा है।हमारे शहरों की रौनक इनके दम से है। हमारे कारखाने इनकी वजह से आबाद और काम कर रहे हैं”।(“अशफ़ाक़ उल्ला और उनका युग”, लेखक -सुधीर विद्यार्थी, पेज-11,राजकमल प्रकाशन )

 बिस्मिल की तरह अशफ़ाकउल्ला भी ‘वारसी’ और ‘हसरत ‘उपनाम से कविता लिखते थे। उनकी मशहूर  ग़ज़लें हैं_

कुछ आरज़ू नहीं है,है आरजू तो यह है,

रख दे कोई ज़रा-सी ख़ाके-वतन क़फ़न में।

शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मरनेवालों का यही बाकी निशाँ होगा।

कभी वो दिन भी आएगा,जब अपना राज देखेंगे,

जब अपनी ही ज़मीं होगी ,जब अपना आसमाँ होगा।

अपनी चिट्ठियों, बयानों,शायरी से उन्होंने देश को एक नई राह पकड़ने की प्रेरणा देते हुए क्रांतिकारी आंदोलन में पहली बार मार्क्सवादी सिद्धांतों की हिमायत की। उन्होंने आजादी की व्याख्या यह की कि ” हम मार्क्सवाद के आधार पर मजदूर राज चाहते हैं”। दूसरी और वह अपने इन विचारों के लिए कम्युनिस्ट कहे जाने की भी चिंता नहीं करते थे। ऐसा सोचने वाले वह पहले भारतीय क्रांतिकारी हैं। 

उन्होंने भगत सिंह से पहले यह कहा__”अगर हिंदुस्तान आजाद हुआ और बजाए हमारे गोरे आकाओं के हमारे वतनी भाई सल्तनत व हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में ले लें और तफ़रीकोतमीज़ – अमीर व गरीब, जमींदार व काश्तकार में रहे ,तो ऐ खुदा,मुझे ऐसी आज़ादी उस वक्त तक न देना जब तक मेरी मख़लूक से मुझको इश्तिराकी (कम्युनिस्ट) समझा जाए तो मुझे इसकी फ़िकर नहीं।”(अशफ़ाकउल्ला और उनका युग,सुधीर विद्यार्थी, पृष्ठ_11,राजकमल प्रकाशन,तीसरा संस्करण)

 महात्मा गांधी का प्रभाव अशफ़ाक़ उल्ला के जीवन पर प्रारंभ से ही था लेकिन जब ‘चौरी चौरा’ घटना के बाद महात्मा गांधी जी ने ‘असहयोग आंदोलन’ वापस लिया तो उनके मन में अत्यंत पीड़ा पहुंची। रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई जिसमें हथियारों के लिए ट्रेन में ले जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई। क्रांतिकारी जिस धन को लूटना चाहते थे असल में वह धन अंग्रेजों ने भारतीयों से ही हड़पा था । 9 अगस्त, 1925 को अशफ़ाक़ उल्ला,रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद ,राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह,शचींद्रनाथ बक्शी ,केशव चक्रवर्ती, बनवारीलाल, मुकुंदीलाल और मन्मथनाथ गुप्त ने अपनी योजना को अंजाम देते हुए लखनऊ के नजदीक 8 डाउन यात्री गाड़ी को ‘काकोरी’ में ले जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।

           भारतीय इतिहास में यह घटना  “काकोरी कांड” के नाम से जानी जाती है।काकोरी की यह रेल डकैती ब्रिटिश सरकार को खुली चुनौती थी। वह समझ गए थे कि यह क्रांतिकारियों का ही कार्य है। 26 सितंबर 1925 की रात्रि को पूरे उत्तर भारत में एक साथ संदिग्ध लोगों के घरों पर छापे मारकर पुलिस ने 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार कर लिया। दल के नेता राम प्रसाद बिस्मिल की गिरफ्तारी शाहजहाँपुर में उनके मकान पर हुयी।

                 अशफ़ाक़ उल्ला शाहजहाँपुर से फरार हो गए और पुलिस के हाथ नहीं आए।10 महीने तक बनारस में एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया इसके बाद उन्होंने विदेश जाने की योजना बनाई ताकि वहां से कमाए पैसों से अपने क्रांतिकारी साथियों की मदद करते रहें। लेकिन एक विश्वासघाती मित्र ने इनाम के लालच में उनकी सूचना पुलिस को दे दी ।इस तरह अशफ़ाक़ उल्ला खां को पकड़ लिया गया। जेल में उन्हें कई यातनाएँ दी गई और सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की।अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे कहा कि हिंदुस्तान आज़ाद हो भी गया तो भी उस पर हिंदुओं का राज होगा और मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इस पर उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों से कहा — “तुम लोग हिंदू मुसलमानों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को बिल्कुल नहीं दबा सकते”।

         19 दिसंबर,का दिन चारों क्रांतिकारियों की फाँसी के लिए निश्चित था। राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को गोंडा जेल में दो दिन पूर्व ही 17 दिसंबर को अज्ञात कारणों से फाँसी पर लटका दिया गया। मनमोहन गुप्त ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि लाहिड़ी को जेल से छुड़ाने की योजना बनाई जा चुकी थी और इसी भय से वे समय से पहले फाँसी पर लटका दिए गए।19 दिसंबर ,1927 को राम प्रसाद बिस्मिल,अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और ठाकुर रोशन सिंह को ब्रिटिश सरकार द्वारा काकोरी ट्रेन डकैती को अंजाम देने के लिए अलग-अलग जेलों में फाँसी  दी गयी।जबकि गिरोह के अन्य सदस्यों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। मात्र 27 वर्ष की उम्र में आज़ादी का सपना लिए अशफ़ाक़उल्ला फांसी पर झूल गए। 

         आज़ादी को लेकर अशफ़ाकउल्ला की सोच बिल्कुल स्पष्ट थी। वह सिर्फ ब्रिटिश सरकार की गुलामी से देश को आज़ाद करवाने की नहीं थी। बल्कि वह कहते थे कि —- “मैं विदेशी हुकूमत को बुरा समझता हूं और साथ ही साथ हिंदुस्तान की ऐसी जम्हूरी सल्तनत को भी जिसमें कमजोरों का हक़ हक़ ना समझा जाए,जिसमें बराबर हिस्सा मजदूरों और काश्तकारों का ना हो”। ( “अशफ़ाक़ उल्ला और उनका युग”,लेखक- सुधीर विद्यार्थी ,पेज -22 ,राजकमल प्रकाशन)

        मौजूदा समय में खासकर नौजवानों को जरूरत है अशफ़ाक़ उल्ला और उनके जैसे अन्य क्रांतिकारियों के जीवन के बारे में पढ़ने और उनसे प्रेरणा लेने की, जिन्होंने धर्म से ऊपर उठकर इंसानियत को सबसे बड़ा धर्म समझा। वह नौजवानों को संदेश देकर गए कि —– “लूटेरा लूट से, जालिम जुल्म से अपना पेट पालते हैं, वकील मुवक्किलों को जमींदार काश्तकारों को सरमायादार मजदूरों को लूटते हैं, इन का खात्मा करना निहायत ज़रूरी है और उसके खिलाफ जंग हमारा फर्ज है”। (“अशफ़ाक़उल्ला और उनका युग”,लेखक- सुधीर विद्यार्थी, पेज-147,राजकमल प्रकाशन)

अंत में “अशफ़ाकउल्ला और उनका युग” के यशस्वी लेखक सुधीर विद्यार्थी के शब्दों में __”अशफ़ाकउल्ला को जानना अपने देश की संस्कृति और इतिहास को जानना है; और जिसे जानकर ही हम आगे का रास्ता तय कर सकते हैं।

अशफ़ाक उल्ला और भगत सिंह का मार्ग ही देश की मुक्ति और प्रगति का मार्ग है।”