साथियों, 

आज, 23 मार्च, भगतसिंह का शहादत दिवस है| आज से 93 साल पहले 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को संयुक्त भारत के शहर लाहौर , जो आज पाकिस्तान का प्रमुख शहर है, में तत्कालीन साम्राज्यवादी  ब्रिटिश हुकूमत ने फाँसी दी थी| तमाम भारतीयों की भावनाओं को कुचलते हुए , कानूनी कार्यवाही के नाम पर नाटक करते हुए क्रूर शासन ने उन्हें रात के अँधेरे में फाँसी पर झुला दिया| उन नौजवानों का गुनाह बहुत बड़ा था; उन्होंने आम आदमी के हित में, गरीब-गुरबा की बेहतरी के लिए, सबके लिए स्वतंत्रता,रोटी, शिक्षा और न्याय के लिए आवाज़ बुलंद की थी| साम्राज्यवादी हुकूमत और उससे लाभ पाने वालों के लिए यह नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था| ताकत के जेरेसाया , कानून  का मखौल बनाते हुए भारतीय जनता के हित का हवाला देते हुए इन्कलाब के इन पुजारियों की आवाज़ खामोश कर दी गयी| साम्राज्यवादी शैतानों ने अपनी जन-शोषण की नीतियों को बदस्तूर जारी रखने के लिए, भारतीयों के दिलों पर राज करने वाले इन नौजवानों की आवाज़ को बंद करने के लिए , शैतानी हुकूमत की नीतियों को जायज ठहराने के लिए क्रांति की इन आवाजों को मौन कर दिया| इन आवाजों में सबसे बुलंद आवाज़ सरदार भगतसिंह की थी| यह इकलौती आवाज़;जिसे सुनकर हुक्मरानों की रातों की नींद उड़ जाती थी, पाँव कांपने लगते थे, शरीर पसीने-पसीने हो जाता था; सिर्फ शोर नहीं थी| इसके पीछे आम भारतीयों के हित में, दुनिया भर के मेहनतकशों की उन्नति के लिए, बेहतर भविष्य के लिए पुख्ता वैचारिक आधार था| इस विचार से साम्राज्यवादी ताकतें घबराती थी| और नेताओं से इतर यह आवाज़ आम आदमी के दिलों में हलचल पैदा करती थी| उम्र से मासूम थे तो क्या, उन्होंने साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध अपना पौरुष दिखलाया था| हुकूमत के लिए उन्हें खामोश करना ज्यादा ज़रूरी था,क्योंकि वे सिर्फ एक आवाज़ भर नहीं थे| साम्राज्यवादी ताकतें समझ रही थी कि इस आवाज़ के पीछे जो विचार है, वह उनकी बुनियाद हिलाकर रख देगा| पूर्व निर्धारित निर्णय घोषित हुआ कि इस आवाज़ को खतम करो; और 23 वर्ष-5 महीने-26 दिन की आयु के   भगतसिंह को उनके साथियों सहित फाँसी दे दी गयी| हिंदी, उर्दू, बंगाली, पंजाबी(गुरुमुखी) और अंग्रेजी भाषाओँ के जानकार भगतसिंह ने रूस, अमेरिका,यूरोप,भारत,ब्रिटेन,आयरिश साहित्य का अध्ययन किया था, महान विचारकों को समझा था| उनके निजी संग्रह में इन भाषाओं का प्रचुर साहित्य था| भगतसिंह ने अपने समय में पश्चिमी चिंतकों को अधिक महत्व दिया था क्योंकि यूरोप में बौद्धिक जागरण हो चुका था, फ्रांस की राज्य क्रांति हो चुकी थी, मार्क्सवाद ने एक नया मार्ग दिखा दिया था और रुसी क्रांति भी हो चुकी थी| भगतसिंह इन सब को पढ़ और समझ रहे थे| इन तमाम साहित्यकारों-विचारकों को पढ़कर, उनकी विचार ,भावनाओं को समझकर, उन्हें अपनी आवाज़ भगतसिंह ने दी| इस वैचारिक तूफ़ान का आगाज़ हुकूमत को डराने-वाला था| अतः उसे कुचलना जरुरी था|  

लेकिन क्या सचमुच इस आवाज़ को खामोश किया जा सका ? क्या उनके विचारों को कुचला जा सका ? क्या उन्हें भारतीयों के दिलों से निकाला जा सका ? जबाब स्पष्ट है-नहीं| वे आवाजें आज भी ज़िंदा हैं और तब तक ज़िंदा रहेंगी जब तक साम्राज्यवादी ताकतें नेस्तनाबूद नहीं हो जाती| वे विचार आज भी युवाओं को उद्धेलित करते हैं| ये विचार कभी मर नहीं सकते| आज भी ये आवाज़ें-ये विचार, अन्याय के विरुद्ध,शोषण के विरुद्ध, अधिकारों के हनन के विरुद्ध, आम आदमी को साहस और प्रेरणा दे रही हैं,  दुनिया को देती रहेंगी| भगत सिंह ने कहा था कि विचार कभी नहीं मरते| बिलकुल सटीक  कहा था| “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज”, “अछूत का सवाल”, “धर्म और राजनीति”, ”मैं नास्तिक क्यों हूँ “विद्यार्थी और राजनीति”, “जाति और धर्म”, “हिंदू-मुस्लिम’, ‘सत्ता नहीं  व्यवस्था परिवर्तन’ आदि नाना विषयों पर भगत सिंह ने भारतीय समस्याओं को बड़े सन्दर्भ में देखा|  इस नौजवान को जालियांवाला बाग की मिटटी ने गढ़ा था| हम आज भी उन्हें याद करते हैं, उनसे प्रेरणा लेते हैं| भगतसिंह और उनके साथी नहीं रहे, उनके विचार ज़िंदा हैं, प्रासंगिक हैं और दुनिया भर में युवाओं के आदर्श हैं| उनके क्रांतिकारी साथी शिव वर्मा लिखते हैं-“कुछ लोग जिंदगी में बगैर बुलाये आ जाते हैं और फिर सारी उम्र कभी पीछा नहीं छोड़ते| स्वयं यदि चले भी गए तो जाते-जाते दिल पर एक गहरी लकीर खिंच जाते है, स्मृतियों का एक भारी बोझ सर पर लाद जाते हैं, जिसे ढोने में, सहेजने में, हम सुख अनुभव करने लगते हैं| और तब जीवन के उबड़-खाबड़ रास्तों पर, काँटों भरी टेढ़ी-मेढ़ी डगर पर जब भी कभी पैर लड़खड़ातें हैं, पैसा,पद और प्रतिष्ठा के प्रलोभन से जब भी कभी विश्वास डगमगाता है तो वही लकीर प्रकाश की किरण बन जाती है और स्मृतियों का वह बोझ, बोझ न रहकर संबल का रूप धारण कर लेता है|” अतीत की स्मृतियों से दिल पर खींची गयी ये लकीरें शोषकों की तमाम होशियारियों के बावजूद, तमाम षड्यंत्रों के बावजूद, सरकारी नज़र-अंदाजी के बावजूद आज भी युवाओं के दिलों पर राज करती हैं, उन्हें झझकोरती है| भगतसिंह ने बिलकुल सही कहा था – ज़िंदा भगतसिंह से ज्यादा खतरनाक मरा हुआ भगतसिंह होगा| ज़िंदा तो एक भगतसिंह था, मरने पर वह हर युवा का, प्रत्येक नौजवान का प्रेरणा स्रोत बना | जिंदगी की दुश्वारियों में, वर्तमान सामाजिक ढाँचे के जीवन में, नेतृत्व और संगठन की कमजोरी के चलते भले ही वह उभर कर सामने नहीं आ पाता, लेकिन दिलों की धडकन में संगीत बनकर गूंजता है, गूंजता रहेगा| उन्होंने इन्कलाब जिंदाबाद कहने के लिए नहीं कहा, उसे अपने चरित्र में उतारा, जीवन का लक्ष्य बनाया और उसके लिए शहीद हुए| मोहम्मद सलीम कहते हैं-  दुनिया की सबसे छोटी कविता है ‘इंकलाब जिंदाबाद’। यह सभ्य-जनों के मन में सदा गूँजती है| कवि धूमिल के शब्दों में “कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कठघरें में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है; कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है; – जी हाँ, ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ आदमी होने की तमीज़ है| बाजारवाद की बदतमीजियों के खिलाफ आम आदमी का हथियार है, संस्कृति है ‘इन्कलाब जिंदाबाद’| इसे बार-बार दोहराए जाने की जरूरत है, भगतसिंह को पढ़े जाने की ज़रूरत है, क्योंकि भगतसिंह जनगण की चेतना का नाम है, युवाओं के आदर्श है| जब कभी एकांत क्षणों में युवा-मन खुद का साक्षात्कार करता है, अपने साथ भगतसिंह को खड़े पाता है| उनके जीवन का बलिदानी नैसर्गिक सौंदर्य, उनके विचारों का सनातन प्रवाह-प्रभाव अपने मन पर महसूस करता है और दुनियादारी के बोझ तले दबे-घुटे व्याकुल मन में  साहस का संचार महसूस करता है| कहीं न कहीं युवा सोचता है कि बस बहुत हुआ, अब सब कुछ बदलो| यह बदलाव ही वास्तविक विकास है, प्रगति है| भगतसिंह इसीलिए देश पर मर-मिटने वालों में पहले स्थान पर हैं, शहीद-ए-आज़म हैं| दिल की अतल गहराईयों से भगतसिंह को स्मरण करने वाले देश के करोड़ों युवा इन विचारों के दीवाने हैं, इसलिए भगतसिंह के दीवाने हैं| गाँव-गलियों के ढाबों-सेलून से लेकर शहरों के छात्रावासों में भगतसिंह के पोस्टर मिलना इस दीवानगी का साक्षात सबूत है| भगतसिंह किसी व्यक्ति का नाम नहीं , एक संपूर्ण विचार का नाम है| देश की नीतियां, राजनीतिकों की चतुराईयाँ, दलों की स्वार्थ लोलुपता, क्षेत्रीयता, बाजारवाद, धनबल-बाहुबल का नकारात्मक बोलबाला, समाज में व्याप्त संकीर्णता जन मन में भीरुता भरती है तो इन सब के विरुद्ध वैचारिक धरातल पर लोहा लेने वाले भगतसिंह बहुत याद आते हैं| भगतसिंह के विचारों को स्मरण कर माला पहनाते वक्त मन की कालिमा धुल जाती है और साधारण मानव कुछ विराट हो जाता है, चेतना हिलोरें मारने लगती है और मन को कुछ अनकहा-अच्छा लगने लगता है| भगतसिंह का सपना अपना लगने लगता है|उनके विचार मशाल बनकर राह दिखाते हैं| साम्राज्यवाद-साम्प्रदायिकता-धर्मान्धता-हिंदी और प्रांतीय भाषायें-क्षेत्रीयता-छात्र राजनीति आदि हर प्रकार के विषयों पर व्यक्त किये गए भगतसिंह के विचार आज भी प्रासंगिक है और रहेंगे| भगतसिंह की जिंदादिली, उनका चरित्र  और उनके विचार उन्हें युवा-मन का महानायक बनाते हैं|  भगतसिंह के क्रांतिकारी साथी शिव वर्मा लिखते है-“आज के राजनीतिक जगत में अपने चारों और फैली अवसरवादिता, पद और प्रतिष्ठा की होड़ में दलगत पटका-पटकी, अपने ही घनिष्ठ मित्रों के कन्धों पर लात रख कर उन्हें गिराकर आगे निकल जाने की लालसा, सिद्धांत के नाम पर सिद्धांतहीनता, गुटबंदी,ढोंग, बनावटीपन देखकर मन में वितृष्णा-सी जाग उठती है| तब भगतसिंह की याद में उन्हीं द्वारा कही गयी पंक्तियाँ मेरा अपना प्रश्न बन जाती हैं- ‘वे सूरतें इलाही किस देश बसतियाँ हैं, जिनके निहारने को अँखियाँ तरसतियाँ हैं|’ भगतसिंह व्यक्तिगत मान-अपमान जैसी क्षुद्र वृत्तियों से बहुत ऊपर थे| उनके लिए देश ही सर्वोपरि था| ‘पाश’ के शब्दों में- ‘भारत / मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द/ जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए / बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं |’ (पल-प्रतिपल, मार्च-जून-2003)| 

आइये , आज भगतसिंह और उनके साथियों के शहादत दिवस पर हम सब मिलकर उनके महान एवं पवित्र आदर्श को पूरा करने का संकल्प ले, देश के खूबसूरत भविष्य का ख्वाब देखें, उसे साकार करने के प्रण के साथ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव का आज स्मरण करें, शहीदों को श्रद्धांजलि दें।