‘ भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज ‘ के संपादक एवं संकलनकर्ता प्रो. चमनलाल ने लिखा है —” एक युवक जो साढ़े तेईस वर्ष की आयु में देश की स्वाधीनता के लिए क्रांतिकारी कार्यवाहियों के अपराध में फाँसी चढ़ गया हो,  वह युवक फाँसी चढ़ने वाले सैकड़ों अन्य युवकों से अलग या सम्मिलित रुप से उन सबका प्रतीक कैसे बन सकता है? लेकिन यदि वह युवक बारह वर्ष की आयु में ही जलियावाला बाग की मिट्टी लेने पहुँच जाए और इस छोटी उम्र से ही लगातार सोचने विचारने की प्रक्रिया में पड़ जाए तो वह युवक 1923 में सोलह वर्ष की आयु में ही घर छोड़ देता है और सत्रह साल की आयु में ‘पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या ‘ पर एक प्रौढ़ चिंतक की तरह लिखने लगता है और क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ – साथ निरन्तर अध्ययन,  चिंतन और लेखन में भी लगा रहता है,  तो ऐसे युवक के क्रांतिकारी चिंतन का प्रतीक बनने की स्थितियाँ बन ही जाती है। यह युवक कोई और भी हो सकता था,  लेकिन उन स्थितियों में यह संयोग भगत सिंह को प्राप्त हुआ और अपने सात वर्ष की अल्पकालिक तूफानी बाज जैसे क्रांतिकारी कार्यकर्ता,  संगठनकर्ता, चिंतक और लेखक के रुप में भगत सिंह ने जो भूमिका निभाई और जिस शान और आन के साथ उसने 23 मार्च 1931 को शहादत के लिए फाँसी का रस्सा गले में पहना,  इसकी मिसाल भारत में ही नहीं,  दुनिया में भी बहुत कम मिलती है और इसीलिए भगत सिंह न केवल भारतीय क्रांतिकारी चिंतन के प्रतीक बने हैं,  आने वाले समय में वे विश्व की क्रांतिकारी परम्परा के महत्वपूर्ण नायक के रुप में भी अपना उचित स्थान प्राप्त करेंगे।

भगत सिंह का परिवार आर्य समाज के विचारों से प्रभावित था। कुछ हद तक आर्य समाज उन दिनों कई बातों में क्रांतिकारी विचारों को लेकर चल रहा था। मगर बचपन में भगत सिंह यदि सबसे अधिक किसी से प्रभावित हुए  तो वे उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह और पिता किशन सिंह थे।  अर्जुन सिंह ने अपने पोते का पालन – पोषण अपनी देखरेख में किया।  वे शुरु से ही उसके भीतर सामाजिक चेतना और तर्क शक्ति के विकास के लिए प्रयत्नशील थे और उसे सामाजिक बराबरी और प्रगति के विचारों से परिचित करा रहे थे।

‘ भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज ‘  में भगत सिंह के 35 पत्रों का उल्लेख किया गया है।  जिसमें पारिवारिक पत्र -10, संपादक के नाम – 2, दोस्तों के नाम -3, सरकार के नाम -13, संगठन के साथियों के लिए -6 और विद्यार्थियों के लिए -1 पत्र है।

‘मुक्तिबोध रचनावली भाग -1 ‘में ‘ तुम्हारा पत्र आया’ शीर्षक कविता में मुक्तिबोध ने लिखा है —-

” तुम्हारा पत्र

जीवन दान देता है

हमारे रात- दिन के अनवरत संघर्ष

में उत्साह-नूतन प्राण देता है। “

भगत सिंह के पत्रों में भी अनवरत संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती है। भगत सिंह के लेखन की शुरुआत पारिवारिक चिट्ठियों से हुई।  22 जुलाई 1918 यह भगत सिंह का पहला खत है,  जब वे छठी कक्षा में पढ़ रहे थे।  उनका यह पत्र दादा अर्जुन सिंह को संबोधित है,  जो उन दिनों गाँव खटकड़ कला आए हुए थे। 

14 नवम्बर 1921 को लाहौर से दादा जी को भेजे गए पत्र में भगत सिंह ने पुरानी किताब मोल लेने के बारे में लिखा जो कि बहुत सस्ती मिल गई थी।  उसी पत्र में यह भी लिखा था —” आजकल रेलवे वाले हड़ताल की तैयारी कर रहे हैं।  उम्मीद है कि अगले हफ्ते के बाद जल्द शुरू हो जाएगी। ” अर्थात उस समय चल रहे चर्चित असहयोग आंदोलन का प्रभाव किस तरह जनता में जोर मार रहा था,  जिसका असर भगत सिंह पर भी हुआ।

नेशनल कालेज लाहौर में पढ़ते समय  (सन् 1923) ही  भगत सिंह ने जन – जागरण हेतु ड्रामा कल्बों में भाग लेना आरम्भ कर दिया था।  पिता को पत्र में यह लिखा —”  मेरी जिंदगी मकसदे आला यानी आज़ादी -ए- हिन्द के असूल के लिए वक्फ हो चुकी है।  इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी खाहशात बायसे कशिश नहीं हैं।

आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया गया है।  लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ। ”  भगत सिंह का यह पत्र घर छोड़ने सम्बन्धी उनके विचारों को सामने लाता है।

असेम्बली में बम फेंकने से कुछ ही दिन पहले भगत सिंह ने अपने संगठन के साथी सुखदेव को जो लंबा पत्र  लिखा था,  उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्घाटित करना अनिवार्य लगता है —” जब तक तुम्हें यह खत मिलेगा , मैं दूर मंजिल की ओर जा चुका होऊँगा।  मेरा यकीन  कर,  आजकल मैं बहुत प्रसन्नचित अपने आखिरी सफर के लिए तैयार हूँ।…….  मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर जीवन की समस्त रंगीनियों से ओतप्रोत हूँ,  लेकिन  वक्त आने पर मैं सब कुछ कुर्बान कर दूँगा।  सही अर्थों में यही बलिदान है।  यह वस्तुएं मनुष्य की राह में कभी भी अवरोध नहीं कर सकती  बशर्ते कि वह इन्सान हो।  जल्द ही तुम्हें इसका प्रमाण मिल ही जायेगा। किसी के चरित्र के संदर्भ में विचार करते समय एक बात विचारणीय होनी चाहिए कि क्या प्यार किसी इन्सान के लिए मददगार साबित हुआ है?  इसका जवाब मैं आज देता हूँ – हाँ,  वह मेजिनी था।  तुमने अवश्य पढ़ा होगा कि अपने पहले नाकाम विद्रोह मन को कुचल डालने वाली हार का दुख और दिवंगत साथियों की याद – यह सब वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था।  वह पागल हो जाता या खुदखुशी कर लेता।  लेकिन प्रेमिका के एक पत्र से वह दूसरों जितना ही नहीं, बल्कि सबसे अधिक मजबूत हो गया ।….. मनुष्य के पास प्यार की एक गहरी भावना होनी चाहिए जिसे वह एक व्यक्ति विशेष तक सीमित न करके सर्वव्यापी बना दे।” भगत सिंह का प्रेम किसी खास केंद्र पर संकुचित रुप से टिका न रह विश्वव्यापी था।

असल में भगत सिंह के विचारों और कार्यों में सुसंगता और प्रत्यय विरोधाभास के कारण उनके राजनीतिक मानस की पड़ताल करना एक चुनौती भरा कार्य है। तेईस- चौबीस वर्ष की आयु में संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत से मुट्ठी भर साथियों के साथ लड़ाई लड़ रहे भगत सिंह ने केवल अध्ययन और अध्यवसाय के कारण बौध्दिकता के इतिहास में अपनी जगह बना ली है।  सेंट्रल जेल लाहौर से 24 जुलाई 1930 को अपने दोस्त जयदेव को लिखे पत्र में फाँसी के इंतज़ार के बावजूद निम्नलिखित पुस्तकों की माँग करते हैं —” कृपा कर मेरे नाम द्वारकानाथ लाइब्रेरी से लेकर निम्नलिखित पुस्तकें शनिवार को कुलबीर के हाथ भेज देना — मिलिटरीज्म – कार्ल लिब्कनेखत,  सोवियत्स एट वर्क,  लैफ्ट विंग कम्युनिज्म, फील्ड्स फेक्ट्रीज एण्ड वर्कशाप्स ,  व्हाई मैन फाइट – बी. रसेल,  म्यूचुअल  एड – प्रिंस- क्रोपाटकिन,  सिविल वार इन फ्रांस – मार्क्स  और अप्टन सिंक्लेयर की ‘ स्पाई’।  भगत सिंह यह अध्ययन किसी विश्वविद्यालय से पी. एच. डी की उपाधि प्राप्त करने के लिए तो कर नहीं रहे थे।  उनका एकमात्र लक्ष्य सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन द्वारा एक नई सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की स्पष्ट जीवन दृष्टि ग्रहण करना था,  बावजूद इस तथ्य के कि उन्हें अपने शीघ्र ही फाँसी पर चढ़ने का पक्का पता था।  अपने जीवन के अंत से पहले अपनी जीवन दृष्टि को वे अधाकाधिक दूरगामी,  भविष्योन्मुखी व यथार्थपरक बनाना चाहते थे,  जिसकी पृष्ठभूमि उनके अल्पकालीन जीवन के अत्यंत समृद्ध अनुभवों व उनके निरन्तर अध्ययन ने पहले ही बना दी थी। 

13 सितम्बर 1929 को यतीन्द्रनाथ दास 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद शहीद हो गए।  जब उनका पार्थिव शरीर लाहौर से कलकत्ता ले आया जा रहा था तो हर बड़े शहर के स्टेशन पर लाखों की भीड़ उनके अन्तिम दर्शनों के लिए उमड़ पड़ती थी।  इन दिनों भगत सिंह अपने किन विचारों के माध्यम से अपनी सारी लड़ाई लड़ रहे थे,  इसका स्पष्ट पता उस पत्र से चलता है जो उन्होंने सुखदेव के साथ चल रहे विचार – संघर्ष के संदर्भ में लिखा था —” चौदह वर्ष तक बंदीगृह  के  कष्टों से भरपूर जीवन बिताने के पश्चात किसी व्यक्ति से यह आशा नहीं की जा सकती कि उस समय भी उसके विचार वही होंगे,  जो जेल से  पूर्व था,  क्योंकि जेल का वातावरण उसके समस्त विचारों को रौंदकर रख देगा।  क्या मैं आप से पूछ सकता हूँ कि क्या जेल से बाहर का वातावरण हमारे विचारों के अनुकूल था?  फिर भी असफलताओं के कारण क्या हम उसे छोड़ सकते थे?   क्या आपका आशय यह है कि यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते तो कोई भी क्रांतिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता?  यदि ऐसा है तो आप भूल कर रहे हैं।  यद्यपि यह ठीक है कि हम भी वातावरण को बदलने में बड़ी सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं,  तथापि हम तो केवल अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं।  मैं तो यह भी कहूँगा  कि साम्यवाद का जन्मदाता मार्क्स,  वास्तव में इस विचार को जन्म देने वाला नहीं था।  असल में  यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने ही एक विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किए थे।  उनमें मार्क्स भी एक था।  हाँ,  अपने स्थान पर मार्क्स भी निस्संदेह कुछ सीमा तक समय के चक्र को एक विशेष प्रकार की गति देने में आवश्यक सहायक सिद्ध हुआ है। ” मनुष्य न परिस्थितियों की कठपुतली है,  न  परिस्थितियों से निरपेक्ष महामानव।  वह परिस्थितियों की उपज है और परिस्थितियों के अनुसार कार्य करके  वातावरण को बदलता भी है।

 भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की ओर से विद्यार्थियों  के नाम पत्र भेजा गया था।  19 अक्तूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ,  लाहौर के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया था।  अधिवेशन के सभापति थे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस।  जिसमें लिखा था —” नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने – कोने में पहुँचाना है,  फैक्टरी  कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने  वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है,  जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाएगा। “

फाँसी पर लटकाये जाने से  3 दिन पूर्व -20 मार्च 1931 को – भगत सिंह और उनके सहयोगियों राजगुरु एवं सुखदेव ने निम्नलिखित पत्र के द्वारा सम्मिलित रूप से पंजाब के गवर्नर  से माँग की थी कि उन्हें युद्धबंदी  माना जाए और फाँसी पर लटकाये जाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। ”  इसी पत्र में इस युद्ध का  दायरा स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह भी लिखा था —” युद्ध की स्थिति मौजूद है और यह तब तक रहेगी जब तक हमारे मेहनतकश भारतीय और हमारी प्राकृतिक सम्पदाएँ, मुट्ठीभर  परजीवियों द्वारा शोषित होती रहेंगी।  चाहे वे विशुद्ध ब्रिटिश पूँजीवादी हो या मिश्रित ब्रिटिश एवं  भारतीय या पूर्णरूप से भारतीय। ” यह पत्र इन राष्ट्रवीरों की प्रतिभा,  राजनीतिक मेधा,  साहस एवं शौर्य की अमरगाथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। 

फाँसी पर लटकाये जाने से  3 दिन पूर्व -20 मार्च 1931 को – भगत सिंह और उनके सहयोगियों राजगुरु एवं सुखदेव ने निम्नलिखित पत्र के द्वारा सम्मिलित रूप से पंजाब के गवर्नर  से माँग की थी कि उन्हें युद्धबंदी  माना जाए और फाँसी पर लटकाये जाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। ”  इसी पत्र में इस युद्ध का  दायरा स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह भी लिखा था —” युद्ध की स्थिति मौजूद है और यह तब तक रहेगी जब तक हमारे मेहनतकश भारतीय और हमारी प्राकृतिक सम्पदाएँ, मुट्ठीभर  परजीवियों द्वारा शोषित होती रहेंगी।  चाहे वे विशुद्ध ब्रिटिश पूँजीवादी हो या मिश्रित ब्रिटिश एवं  भारतीय या पूर्णरूप से भारतीय। ” यह पत्र इन राष्ट्रवीरों की प्रतिभा,  राजनीतिक मेधा,  साहस एवं शौर्य की अमरगाथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। 

फाँसी के एक दिन पहले अपने लंबे संघर्ष के परिणाम से अवगत एक वस्तुवादी की तरह,  व्यक्तिवादी की तरह बिल्कुल नहीं,  अपने साथियों के नाम अंतिम पत्र 22 मार्च  1931 में उन्होंने लिखा —–” स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए,  मैं इसे छिपाना नहीं चाहता।  लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता । मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है -इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।  आजकल मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं है।  अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या सम्भवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते – हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।…… मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा?  आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। ”  भगत सिंह अपने आदर्श के लिए जीना चाहते थे, अपने आदर्श के लिए ही उन्होंने मरना  कबूल किया। 

पूरे परिवार से  उनकी अंतिम मुलाकात 3 मार्च 1931 को हुई।  भगत सिंह का चेहरा खिला हुआ था।  उसी शाम दोनों भाइयों को पत्र लिखें । कुलबीर के नाम लिखे पत्र में भगत सिंह ने कहा —” मेरे अजीज,  मेरे बहुत – बहुत प्यारे भाई,  जिंदगी बहुत बड़ी सख्त है और दुनिया बड़ी बे – मुरव्वत। सब  लोग बेरहम हैं। सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुजारा हो सकेगा। “

और छोटे भाई कुलतार के नाम पत्र में भगत सिंह ने कहा –” आज तुम्हारी आँखों से आँसू देखकर बहुत दुख हुआ।  आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था,  तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते। 

बरखुर्दार,  हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना।  हौसला रखना और क्या कहूँ!

” उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्ज़ – जफा क्या है ,

हमें यह शौक़ है देंखे सितम में इन्ताह क्या है।

दहर से क्यों खफ़ा रहें,  चर्ख़ का क्यों गिला करें,

सारा जहां अदू सही,  आओ मुकाबला करें।

कोई दम का मेहमां हूँ ऐ अहले – महफिल

चरागे – शहर हूँ  बुझा चाहता हूँ ।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,

ये मुश्ते – ख़ाक है फानी,  रहे  रहे न  रहे।