” भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब मौत से जूझ रहे थे, तब उस छटपटाहट को देखकर मोहम्मद अली ‘ताज’ ने कहा था :
उम्र भर जी के जीने का न अंदाजा आया।
जिंदगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाज आया।


जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें ‘जीने का अंदाज ‘ कभी नहीं आया। वरना यहाँ ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आंदोलन के कंधे पर चढ़कर ‘नया पथ’ में ‘फ्रंट पेजित’ भी होते थे; फिर पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र की ‘कृष्णायन’ का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ -राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं। इसे मानना चाहिए कि पुराने प्रगतिवादी आंदोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया (बहुतों को दिया)। कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे। न उनकी रचना में कहीं ‘सुर्ख परचम’ था न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे ‘लाल चूनर ‘ पहनाते थे। वे गहरे अन्तर्द्वन्द्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। मजे की बात यह है कि जो ‘निराला’ की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे। “
मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में समाज के यथार्थ को जिस बारीकी से चित्रित किया है, वह कोई दूसरा रचनाकार नहीं कर पाया है।मुक्तिबोध केवल कवि ही नहीं, वे आलोचक, कहानीकार, निबंधकार भी थे । वे अपनी रचनाओं में ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ हर चीज का उल्लेख करते हैं। उनका पारिवारिक जीवन आर्थिक संकटों से भरा रहा ,फिर भी उन्होंने साहित्यिक जीवन में कभी समझौता नहीं किया।’मुक्तिबोध :एक संस्मरण ‘ में हरिशंकर परसाई ने लिखा है –” मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी। उन्हें और तरह के क्लेश भी थे। भयंकर तनाव में जीते थे। पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे। उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे। पैसे-पैसे की तंगी में जीने वाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था। वे पैसा देने वाली पत्रिकाओं में लिखकर आमदनी बढ़ा सकते थे, पर लिखते नहीं थे। कहते –” अपनी पत्रिका में लिखेंगे। बस मुझे तो कागज आप दे दीजिए। यों वे बेहद मधुर स्वभाव के थे। खूब मजे में आत्मीयता से बात करते थे। मगर कोई वैचारिक चालबाजी करे या ढोंग करे, तो मुक्तिबोध चुप बैठे तेज नजर से उसे चीरते रहते। “
मुक्तिबोध का अपने मित्रों से गहरा लगाव था।अपने मित्रों को वे ‘पार्टनर’ भी कहकर बुलाते थे।अपने मित्रों से मुक्तिबोध देश, दुनिया, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय और साहित्य जगत में होने वाली घटनाओं पर काफी विस्तार से चर्चा करते थे।हरिशंकर परसाई ने ‘ वह तेजवती पीड़ा’ में लिखा है —“मित्र से उनकी माँग बहुत होती थी। यह माँग साधारण नहीं होती थी, जैसी कि आमतौर पर हमारी होती है। यह माँग इनसे कुछ ऊपर की होती थी — ईमान की माँग करते थे। रचना के प्रति ईमानदारी, विचारों के प्रति ईमानदारी, जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदारी। “
फासिज्म कितना भयंकर होता है। इसके खतरे से मुक्तिबोध हमेशा आगाह करते रहे हैं। मुक्तिबोध की पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति ‘ जब जब्त कर ली जाती है, तब मुक्तिबोध पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। हरिशंकर परसाई ने ‘वह तेजवती पीड़ा ‘ में लिखा है –” मुक्तिबोध कहते हैं, ” पार्टनर, यह मेरी या आपकी पुस्तक का मामला नहीं है। मामला यह है कि देश में फासिस्ट ताकतें बहुत बढ़ गयी हैं। वे आपकी कलम छीन लेंगी,आपके गले को दबाकर आपको बोलने नहीं देंगी। वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर देंगी। वे बढ़ीं तो किसी दिन आपकी सारी प्रजातान्त्रिक संस्थाओं को नष्ट कर देंगी और देश में फासिस्ट तंत्र को स्थापित कर देंगी। “
इसी में आगे उन्होंने लिखा है –” वे घंटों देश की राजनैतिक, आर्थिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते और बताते कि ऐसी स्थितियों में फासिस्ट प्रवृत्ति किस तरह उभर रही है। बोलते – बोलते उनकी दम फूल उठती और वे बिस्तर पर लुढ़ककर थोड़ी देर चुपचाप पड़े रहते। घोर मानसिक त्रास में उनके वे दिन गुजर रहे थे और उन्हीं दिनों उनकी वह सबसे लम्बी और सबसे ताकतवर कविता ‘अँधेरे में ‘ पूरी हुई। एक रात लगभग 2 घंटों में उन्होंने उस कविता का पाठ किया। हम सुनने वाले तो उसके बाद बड़ी देर तक सन्नाटे में बैठे रहे – ऐसा प्रभाव उस कविता का था और मुक्तिबोध ने एक के बाद एक बीड़ियाँ जलाना शुरु कर दिया। उस समय उन्हें देखकर लगता था, इस आदमी ने अपने को निचोड़ दिया, अपना सर्वस्व दे दिया, अपनी सारी प्राणशक्ति इसमें भर दी है और अब यह रिक्त हुआ बैठा है। “
मुक्तिबोध सुविधाभोगी जमात के लोगों की झूठी उपलब्धियों को रेखांकित करने के बहाने इस वर्ग के लोगों की असलियत को नंगा करते हैं। ये लोग अपने ही (मध्यम वर्ग) वर्ग के होते हुए भी उस मरणशील व्यवस्था का साथ देते हैं, जो शोषण, अत्याचार और मूल्यहीनता की बुनियाद पर टिकी हुई है। ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘ में मुक्तिबोध ने लिखा ने लिखा है —“छोटे या मझोले मध्य -वर्ग के महत्त्वाकांक्षी लेखक पद और प्रतिष्ठा के लोभ में उन्हीं के दरवाजे जाते हैं। उन्हीं से सामंजस्य स्थापित करते हैं। और जाने या अनजाने साहित्य में उन्हीं उच्चतर वर्गों की अद्यतन राजनीति सांस्कृतिक मनोवृत्तियों के ,उन्हीं के प्रभावों और विचारों के, उन्हीं की दृष्टियों और भावों के संवाहक बन जाते हैं। यह एक वास्तविक जीवन – तथ्य है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि उनके दरवाजे जाकर उनकी कृपा से सभ्य जीवन की सुंदर साज -सज्जा प्राप्त करके उन अपनों से घृणा और तिरस्कार करने लगते हैं कि जिनमें वे जनमे थे। “
मुक्तिबोध की चिंता उनकी कविता में भी झलकती है:
” बहुत -बहुत ज्यादा लिया
दिया बहुत – बहुत कम
मर गया देश
अरे, जीवित रह गये तुम? “
कविता की ये पंक्तियां उनके साहित्य का महत्वपूर्ण बिंदु है। देश की आजादी के बाद एक ईमानदार नागरिक का मानवीय गरिमा के साथ अपने परिवार की जिम्मेदारी का पालन करना कितना कठिन हो गया। यह चिंता बार -बार उनके साहित्य में झलकती है। एक साहित्यिक की डायरी में मुक्तिबोध ने लिखा है –” साहित्य में प्रकाश ही प्रकाश है, किंतु हमें प्रकाश में सत्यों को ढूँढना है। हम केवल साहित्यिक दुनिया में नहीं रहते वास्तविक जीवन में रहते हैं। साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा रखना मूर्खता है। ” उन्होंने इस विषय पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं —” कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते। ” (चकमक की चिनगारियां) जन आंदोलन से जुड़े बिना व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकता। यह आज ज्यादा प्रासंगिक लगता है। मुक्तिबोध रचनावली भाग 5 में ‘जनता का साहित्य किसे कहते हैं? ‘ लेख में मुक्तिबोध ने लिखा है —” जनता का साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को, प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है। ” इसी लेख के अंत में मुक्तिबोध ने लिखा है —” वास्तविक बात यह है कि शोषण के खिलाफ संघर्ष, तदन्तर शोषण से छुटकारा और फिर उसके बाद दैनिक जीवन के उदर – निर्वाह -संबंधी व्यवसाय में कम से कम समय खर्च होने की स्थिति और अपनी मानसिक – सांस्कृतिक उन्नति के लिए समय और विश्राम की सुविधा -व्यवस्था की स्थापना, जब तक नहीं होती, तब तक शत-प्रतिशत जनता साहित्य और संस्कृति का पूर्ण उपयोग नहीं कर सकती, न un अपना पूर्णरंजन ही कर सकती है। इस संपूर्ण मनुष्य सत्ता का निर्माण करने का एकमात्र मार्ग राजनीति है, जिसका सहायक साहित्य है। “

मुक्तिबोध बहुत मेहनती आदमी थे और लिखने पर बहुत मेहनत करते थे। इस पूँजीवादी व्यवस्था ने लोगों को कितना धूर्त और मौकापरस्त बना दिया है। वह यह साफ देख और समझ रहे थे। ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘ में मुक्तिबोध ने लिखा है —” मैं बता देना चाहता हूँ कि आज का उच्चतर वर्ग अधिक जड़ और अधिक प्रतिगामी हो गया है। वह इस समय साहित्य में ऐसे विचारों का प्रचार करना चाहता है, जिनके द्वारा हमारा साहित्यिक व्यक्ति अनुभूत वास्तवों की पाशविकता और मानवीयता पर परदा डाल दे और वह जनता की ओर उन्मुख न हो। “
मुक्तिबोध अपने मित्रों की लिखी गई रचनाओं को पढ़ते और उसमें रह गयी कमियों की बड़ी निर्भीकता से आलोचना करते। हरिशंकर परसाई ने ‘ वह तेजवती पीड़ा ‘ में लिखा है –” वे पहरेदारी करते थे मित्रों पर। बहुत पहले मेरी एक कहानी एक अंग्रेजी पत्र में अनूदित होकर छप गयी। उस पत्र की नीति के वे सख्त विरोधी थे। वे उसे एक सुनहरा जाल समझते थे, जो लेखकों को फँसाता था। उन्होंने मेरी रचना उसमें पढ़ी। तब मेरी उनसे बहुत मुलाकातें भी नहीं हुई थीं, पर एक आत्मीयता का संबंध स्थापित हो गया था। उन्होंने ‘नया खून’ में एक लम्बी टिप्पणी लिख दी, जिसमें साफ लिखा कि परसाई और उक्त पत्र की ‘स्पिरिट ‘ में बहुत फ़र्क है। ऐसे पत्रों के पास पैसा बेहिसाब होता है और वे पैसा देकर लेखकों को कब्जे में करते हैं;उनका ईमान खरीदते हैं। ” आगे हरिशंकर परसाई ने लिखा है –” मुक्तिबोध न जाने किन-किन लोगों का कितना ख्याल रखते थे। 4-6 कविताएँ ही जिसने लिखी हैं, ऐसा कोई किशोर सामने पड़ जाता, तो आश्चर्य होता था देखकर कि मुक्तिबोध उस पर भी ध्यान दे रहे हैं। “
मुक्तिबोध को अपने लेखन के प्रति कितनी चिंता थी। इसको हरिशंकर परसाई ने ‘ मुक्तिबोध’ में लिखा है –” और उस रात जब हम लोग गाड़ी पर चढ़े ,तो साथ में रिमों कागज था। मुक्तिबोध ने हठ करके पूरी कविताएँ, अधूरी कविताएँ तैयार पांडुलिपि सब लदवा लीं। बोले, ” यह सब मेरे साथ जाएगाँ। एकाध हफ्ते बाद मैं कुछ काम करने लायक हो जाऊँगा, तो कविताएँ पूरी करूँगा, नयी लिखूँगा और पांडुलिपि दुरूस्त करूँगा। अपने से अस्पताल में बेकार पडा़ नहीं रहा जाएगा,पार्टनर !…. और हाँ, वह पासबुक रख ली है न? पर उन कागजों पर मुक्तिबोध का न फिर हाथ चल सका और न वे एक चेक काट सके। जिंदगी बिना कविता -संग्रह देखे और बिना चेक काटे गुजर गयी। “
साहित्य को लेकर मुक्तिबोध इतने गंभीर थे कि अपनी व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को भुलाकर अपने मित्रों से वे साहित्य पर घंटों बहसें करते नहीं थकते थे। हरिशंकर परसाई ने ‘वह तेजवती पीड़ा ‘ में लिखा है —” इतना समर्पित व्यक्ति कम ही देखने में आता है। बड़े परिवार की जिम्मेदारी उन्हें निभानी थी, पति और बच्चों के पिता के कर्तव्य उन्हें पूरा करने थे, माता -पिता की सेवा उनके हिस्से में थी और बीमारियों से जूझना उनका निरन्तर काम हो गया था -लगातार चौबीस घंटे, महीनों और पचीसों वर्षों जिसे समस्याओं और संकटों का सामना पड़ा वह जब भी मिलता, व्यक्तिगत कष्टों की बात नहीं करता था। चिट्ठी -पत्री में एकाध वाक्य व्यक्तिगत समस्याओं का होता, बाकी साहित्यिक और सामाजिक। जबलपुर वे साल में एक बार जरूर ही आते थे, कभी अधिक भी। 4-5 दिन रूकते थे और उन चार -पाँच दिनों में मुश्किल से एक घंटा अपनी समस्याओं के बारे में बात करते।बाकी जागृत स्थिति के 17-18 घंटे विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं पर बात। ” आर्थिक तंगहाली के बावजूद मुक्तिबोध ने कभी समझौता नहीं किया।मुक्तिबोध की बीमारी की इलाज की सहायता के लिए जब
पैसे के लिए अखबार में अपील प्रकाशित कराने की बात बताई जाती है तब मुक्तिबोध पर इसका क्या प्रभाव पड़ा हरिशंकर परसाई ने ‘ मुक्तिबोध ‘ में लिखा है —” चिट्ठी पढ़कर मुक्तिबोध उत्तेजित हो गये। झटके से तकिये पर थोड़े उठ गये और बोले, ” यह क्या है? दया के लिए अपील निकलेगी! अब, भीख माँगी जायेगी मेरे लिए। चंदा होगा! नहीं — मैं कहता हूँ – यह नहीं होगा। मैं अभी मरा थोड़े ही हूँ। मित्रों की सहायता मैं ले लूँगा – लेकिन मेरे लिए चंदे की अपील। नहीं। यह नहीं होगा।”
मुक्तिबोध अपनी बीमारी की भयंकरता जानते थे। उनकी मौत के साथ ही यह बीमारी खत्म होगी। अपने अन्तिम समय में भी वे देश की राजनीति और साहित्य में क्या चल रहा है बहसें करते नजर आये। हरिशंकर परसाई ने ‘मुक्तिबोध: एक संस्मरण ‘ में लिखा है —” बीमारी से लड़कर मुक्तिबोध जीत गये थे।बीमारी ने उन्हें मार दिया, पर तोड़ नहीं सकी। मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अन्त तक वैसा ही रहा। जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को वे तैयार नहीं थे। वे मरे। हारे नहीं। मरना कोई हार नहीं होती। “
वर्ग चेतना को लेकर मुक्तिबोध की समझ कितनी साफ थी, इसका उल्लेख करते हुए हरिशंकर परसाई ने ‘ मुक्तिबोध :एक संस्मरण ‘ में लिखा है —” वर्ग चेतना के तीव्र बोध की दो -एक घटनाएँ दिलचस्प हैं। मुझ पर एक प्रकाशक ने कापीराइट का मुकदमा चला दिया था। मुक्तिबोध आए हुए थे। दिसम्बर का महीना था। भोजन करके वे सामने के मैदान में बैठे हुए थे। मैं कचहरी जाने लगा, तो पूछा -पार्टनर मैजिस्ट्रेट कौन है? मैंने नाम बताया। वे बोले — नाम से मालूम होता है कि वह नीचि जाति का है। विदर्भ में होते हैं ये लोग। आप छूट जाएँगे। मैंने पूछा — यह अंदाज आपको कैसे लगा? उन्होंने कहा –वह नीची जाति का है न! उसकी वर्ग -सहानुभूति लेखक के प्रति होगी, प्रकाशक के साथ नहीं। संयोग से मुकदमा खारिज भी हो गया ।”
मुक्तिबोध जिस कमरे में बैठकर लिखा करते थे। उसके आस पास की प्रकृति की सुषमा और कमरे की स्थिति को बताते हुए हरिशंकर परसाई ने ” मुक्तिबोध” में लिखा है —-” राजनाँदगाँव में तालाब के किनारे पुराने महल का दरवाजा है –नीचे बड़े फाटक के आसपास कमरे हैं,दूसरी मंजिल पर एक बड़ा हाॅल और कमरे, तीसरी मंजिल पर कमरे और खुली छत। तीन तरफ से तालाब घेरता है। पुराने दरवाजे और खिड़कियाँ, टूटे हुए झरोखे, कहीं खिसकती हुई ईंटें, उखड़े हुए पलस्तर की दीवारें। तालाब और उसके आगे विशाल मैदान। शाम को जब ज्ञानरंजन और मैं तालाब की तरफ गये और वहाँ से उस महल को देखा, तो एक भयावह रहस्य में लिपटा वह नजर आया। दूसरी मंजिल के हाॅल के एक कोने में विकलांग मुक्तिबोध खाट पर लेटे थे। लगा, जैसे इस आदमी का व्यक्तित्व किसी मजबूत किले -सा है। कई लड़ाइयों के निशान उस पर हैं। गोली के निशान हैं, पलस्तर उखड़ गया है, रंग समय ने धो दिया है –मगर जिसकी मजबूत दीवारें गहरी नींव में जमी हैं और वह सिर ताने गरिमा के साथ खड़ा है। “
सन् 1942 में ही मुक्तिबोध का मार्क्सवाद की ओर झुकाव हुआ। मुक्तिबोध ने एक व्यवस्थित विश्वदृष्टि अर्जित करने के लिए गहन आन्तरिक संघर्ष के फलस्वरूप मार्क्सवादी दर्शन को अपनाया था। इसलिए वे जीवन भर मार्क्सवादी साहित्य विचारक और रचनाकर बने रहे। ‘मुक्तिबोध : जीवन दृष्टि की सही पहचान ‘ पर हरिशंकर परसाई से श्यामसुंदर शर्मा की विशेष बातचीत में ‘मार्क्सवाद भी एक मुद्दा रहा है ‘ श्याम सुंदर शर्मा के इस प्रश्न का उत्तर हरिशंकर परसाई ने दिया है। उन्होंने कहा है –” मुक्तिबोध के बारे में हम लोग जो व्यक्तिगत रुप से उनके संपर्क में कई सालों से रहे और घंटों उनकी बातें सुनते रहे उन्हें कोई शक नहीं है कि मार्क्सवादी दर्शन में उनका अटल विश्वास था। उनका इतिहास बोध, जीवन व्याख्या, समाजशास्त्र और आर्थिक व्यवस्था की व्याख्याएँ सब मार्क्सवादी थी। जबलपुर में जब थे तब कम्युनिस्ट पार्टी से उनके निकट सम्बंध थे और कम्युनिस्ट नेता श्री. पी. के ठाकुर सृष्टिधर मुखर्जी, प्रोफेसर ताम्हनकर आदि उनके घनिष्ठ मित्र थे। वे कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रगति में बराबर रुचि लेते थे। राजनाँदगाँव में भी वे कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत नजदीक थे। यहाँ तक कि पार्टी आंदोलनों के लिए परचे भी लिखते थे। इन चीजों को छिपाना नहीं चाहिए। जहाँ तक उनकी वर्ग -संलग्नता का प्रश्न है, उनका एक निबंध ‘प्रतिबद्धता का प्रश्न ‘ इसे बिल्कुल स्पष्ट करता है कि वे कहाँ तक प्रतिबद्ध थे। मार्क्सवाद की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग अक्सर नहीं करते थे, परन्तु उनकी आस्था मार्क्सवाद में पूरी थी। उनकी दृष्टि इतनी व्यापक और आयाम इतना विस्तृत था कि उसमें वामपंथी पार्टियों के रोजमर्रा के नारों के रचना में आने की गुंजाइश नहीं थी।पर उनके चिंतन से हम लोग परिचित हैं। मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि उन्हें मार्क्सवादी सिद्ध कर दिया जाए। मार्क्सवादी या गैर मार्क्सवादी कहना बहुत स्थूल और भोंडा प्रयास है। वास्तव में उनकी सही जीवन दृष्टि को पहचानना चाहिए। जब कोई नया कवि उनके पास आता था तब वे उससे कहते थे। ‘आप पहले अपना पालिटिक्स साफ कीजिए ‘ विनोद कुमार शुक्ल ने मुझे यह बात बताई। कहा कि वे दो बार मुझे कह चुके कि पहले अपना पालिटिक्स साफ कीजिए। “
श्यामसुंदर दास के दूसरे प्रश्न ‘ मुक्तिबोध मृत्यु के पश्चात अधिक चर्चित और प्रशंसित हुए। इसका कोई विशेष कारण है अथवा यह महज संयोग है? ‘ हरिशंकर परसाई ने लिखा है —” मुक्तिबोध मूल रुप से कवि थे किंतु सामान्य अर्थों में वे लोकप्रिय कवि नहीं थे, इसलिए वे बाजार में आने लायक कवि नहीं थे। प्रकाशन व्यवसाय है, साहित्य सेवा नहीं। व्यवसाय के काम के न होने के कारण ही मुक्तिबोध को प्रकाशक नहीं मिले। वे लाखों में बिकने वाली लोकप्रिय पत्रिकाओं में लिखते भी नहीं थे। फिर भी, लोग उन्हें जानते थे, उनके काव्य का महत्व समझते थे।उनकी अवहेलना तो उनके जीवन काल में भी नहीं हुई। तमाम लेखक, बड़े से बड़े, उनका दबदबा, मानते थे, उनकी बात पर ध्यान देते थे और अपने बारे में उनका मत जानने को उत्सुक रहते थे। जब मैं ‘वसुधा’ का सम्पादन कर रहा था तब मैंने जाना कि कितने बड़े – बड़े लेखक कवि मुक्तिबोध का मत जानने को उत्सुक हैं और वे चाहते हैं कि मैं वह उन्हें उपलब्ध करा दूँ। दबदबा उनका बहुत था इसमें शक नहीं, लोग उनसे डरते थे। “
हिंदी काव्यालोचना में रचना प्रक्रिया पर सबसे अधिक और गंभीर विचार मुक्तिबोध ने किया है। ‘ एक साहित्यिक की डायरी ‘ में “तीसरा क्षण ” में वस्तुत: मुक्तिबोध ने अपनी रचना प्रक्रिया को ही अधिक रेखांकित किया है। इसमें कला के तीन क्षणों को चर्चा करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है —” कला का पहला क्षण है, जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव -क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने दुखते – कसकते मूलों से अलग हो जाना और एक फैंटेसी का रुप धारण कर लेना। मानों वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था की गतिमानता। शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में भीतर जो प्रवाह बहता रहता है, वह समस्त व्यक्तित्व और जीवन का प्रवाह होता है। प्रवाह में वह फैंटेसी अनवरत रुप से विकसित परिवर्तित होती हुई आगे बढ़ती जाती है। इस प्रकार वह फैंटेसी अपने मूल रुप को बहुत कुछ त्यागती हुई नवीन रुप धारण कर लेती है। “
इस मान्यता से हमारे सामने कई तथ्य आते हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि किसी कलाकृति के निर्माण के लिए केवल अनुभव ही पर्याप्त नहीं है। अपने नितांत वैयक्तिक अनुभवों को ही ‘ समझ’ मानकर सत्य के रुप में उसकी प्रतिष्ठा करने वाले नयी कविता के रचनाकारों पर मुक्तिबोध ने गहरा आक्षेप किया है। उनकी दृष्टि में एक जीते -जागते सामाजिक प्राणी के आत्मानुभव में कभी विशुद्ध अनुभव हो ही नहीं सकते। इसलिए इन्होंने आत्मानुभवों को इतिहास की विकास – प्रक्रिया और समसामयिक परिवेश में रखकर उनकी जाँच -परख पर बल दिया है। इस प्रक्रिया से गुजर कर विशिष्ट अनुभव अपने मूल स्रोत से अलग होते हुए संवेदना और ज्ञान का रुप धारण करते हैं तथा व्यापक सत्य के रुप में प्रतिष्ठित होते हैं।
मुक्तिबोध रचनावली भाग 5 के ‘ काव्य की रचना -प्रक्रिया :एक ‘ में मुक्तिबोध ने लिखा है —“रचना -प्रक्रिया, वस्तुत: एक स्वायत्त प्रक्रिया है। और वह किन्हीं मूल उद्वेगों और अनुरोधों के सहारे चली चलती है। ये उद्वेग और अनुरोध ही वह लालटेन है, जिसको हाथ में लेकर उसे आगे चलना होता है। “
इसी लेख में आगे मुक्तिबोध ने गंभीरता के साथ लिखा है —” कवि केवल रचना -प्रक्रिया में पड़कर ही कवि नहीं होता, वरन उसे वास्तविक जीवन में अपनी आत्म समृद्धि को प्राप्त करना पड़ता है और मनुष्यता के प्रधान लक्ष्यों से एकाकार होने की क्षमता को विकसित करते रहना पड़ता है। यही कारण है कि काव्य केवल एक सीमित शिक्षा और संस्कार नहीं है, वरन एक व्यापक भावनात्मक और बौद्धिक परिष्करण (कल्चर) है –वह कल्चर, वह परिष्कृति, जो वास्तविक जीवन में प्राप्त करनी पड़ती है। “
मुक्तिबोध सांस्कृतिक प्रक्रिया की भांति ही रचना -प्रक्रिया को एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी मानते हैं। अत: उन्होंने कवि कलाकार के अंतजर्गत को भी ,उसके व्यक्तित्व को भी आलोचना का विषय बनाया है। ‘ एक साहित्यिक की डायरी ‘ के ‘ विशिष्ट और अद्वितीय ‘ शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने इसी आधार पर अपने समसामयिक साहित्यकारों की जीवन -पद्धति पर आक्षेप किया है। नयी कहानी और नयी कविता की व्यक्तिवादी अन्तर्मुखता, आत्मबद्धता, असामाजिकता, अद्वितीयता, अलगाव, अजनबीयत आदि के कारणों को मुक्तिबोध ने रचनाकारों की संपूर्ण मनोवैज्ञानिक स्थिति में देखा है। इस संबंध में उन्होंने लिखा है —” वे अपने असंग संवेदनशील प्रतिभाशालित्व को अद्वितीय कहते हैं। और मैं कहता हूँ कि समय पर विवाह न होने से उनके सुकोमल तंतुओं का विस्तार नहीं हुआ है और वे सुकोमल तंतु समाज की विभिन्न संस्थाओं से, समाज के विभिन्न रुपों से घनिष्ट रुप से जुड़ नहीं पाए हैं। इसलिए समाज का वास्तविक प्रत्यक्ष संवेदनात्मक बोध, समाज के भीतर व्यक्ति मानवता, जो उसकी विभिन्न संस्थाओं के भीतर से ही किसी – न – किसी मात्रा में व्यक्त होती है –का हार्दिक परिचय उन्हें नहीं है। उनके लिए समाज केवल आत्मप्रक्षेप है, रेत का ढेर है, ढोरों की खटपट करती हुई भीड़ है। “
इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने रचनाकार को सामाजिक चेतना के विकास के लिए उसके पारिवारिक जीवन को महत्वपूर्ण माना है। परिवार और समाज के साथ जुड़कर ही वह सुख-दुख, अच्छा -बुरा, न्याय- अन्याय, यथार्थ – आदर्श आदि का बोध प्राप्त करता है। अपनी पारिवारिक समस्याओं के माध्यम से ही वह सामाजिक समस्याओं -शोषण, बेरोजगारी, महँगाई, भ्रष्टाचार आदि से परिचित हो पाता है। इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध काव्यालोचन को प्रकारान्तर से जीवन की आलोचना भी मानते हैं, उस जीवन की, जो एक कवि -कलाकार जीता है।
मुक्तिबोध रचनावली भाग -5 में ‘ काव्य की रचना-प्रक्रिया में मुक्तिबोध ने लिखा है —” जीवन जगत के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के भीतर समाई मार्मिक आलोचना दृष्टि के बिना, कवि कर्म अधूरा रह जाता है। “