कोलकाता को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है । कोलकाता की प्रसिद्ध नाट्य संस्था ‘ नान्दीकार ’ द्वारा वर्षों से लगातार आयोजित ‘ नेशनल थिएटर फेस्टिवल ’ महानगर के सांस्कृतिक कैलेण्डर में एक ऐसा आयोजन है जिसकी नाट्य – प्रेमियों की बेहद उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती है। इसमें देश की प्रमुख भाषाओं के नाटकों के मंचन के साथ विदेशी भाषाओं के नाटकों का भी मंचन नाट्य –प्रेमियों के लिए एक दुर्लभ अवसर बन जाता है | हबीब तनवीर की श्रध्दांजलि सभा में ‘ मिनर्वा ’ में बोलते समय फ़िल्म और नाट्य – निर्देशक गौतम हाल्दार ( विद्या बालन की पहली फ़िल्म ‘भालो थेको ’ के निर्देशक) ने बताया था “ ‘ नान्दीकार’ ने ही हबीब तनवीर का परिचय कलकत्ता के नाट्य प्रेमियों से कराया था।हबीब तनवीर का नाटक देखने के लिए दर्शको में एक सबसे लम्बा व्यक्ति लाइन में खड़ा था । वे थे अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत राय ”         

22 दिसंबर, 2011 को ‘ अकादमी आफ फाइन आर्टस ’ में मुझे गीतांजलीश्री के चर्चित उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस ’ का मंचन देखने का अविस्मरणय अवसर मिला था । उपन्यास पढ़ा नहीं था । इसलिए उपन्यास का मंचन देखने की उत्सुकता थी | पर्दा उठने के पहले पूरा हाल दर्शकों से ‘हाउसफुल’ था । ‘नान्दीकार’ के रूद्रप्रसाद सेनगुप्त ने नाटक के शुरू में अपनी विशिष्ट हिंदी में बताया कि ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा ’रंगमंडल इस नाटक का मंचन करेगा   पूरे उपन्यास की कथा को दो घंटे की प्रस्तुति में समेटना अत्यंत दुर्लभ था , लेकिन कीर्ति जैन के निर्देशन में N.S.D ने अपने परिश्रम से ऐसा मंचन प्रस्तुत किया कि पूरा हाल दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूँजता रहा।

‘हमारा शहर उस बरस ’ एक ऐसी कृति है जो वास्तव में समाज का आइना है । इस नाटक में हिन्दू – मुस्लिम सांप्रदायिकता की समस्या , धार्मिक कट्टरता , एवं मध्यमवर्गीय बुध्दिजीवियों का मुखौटा उघाड़ कर रख दिया है । इस नाटक में प्रमुख चार पात्र हैं – दद्दू . श्रुति , हनीफ और शरत |श्रुति , हनीफ और शरत काश्मीर के एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं । श्रुति और हनीफ पति –पत्नी हैं । ये तीनों मिलकर साम्प्रदायिक दंगों पर रिपोर्ट तैयार करते हैं और वह प्रकाशित भी होता है । रिपोर्ट में हिन्दू और मुस्लिम कट्टरता को साम्प्रदायिकता फैलाने का जिम्मेदार बताया गया । हनीफ को मुस्लिम कट्टरवादियों से धमकी भरे फोन लगातार मिलते रहते हैं । हनीफ अपने विभाग के विधार्थियों में बहुत लोकप्रिय है और वह देश – विदेश के सेमिनारों में अपना पेपर पढ़ने के लिए जाता रहता है । विभाग में वह अकेला मुसलमान है । नैरेटर की भूमिका में लेखिका यह बताती हैं कि बाबरी मस्जिद – राम जन्म भूमि विवाद के कारण काश्मीर की बर्फीली घाटियों में बेहद तनाव है । जिस शहर की पहचान यूनिवर्सिटी से होती थी, वहीं अब मठ से उसकी पहचान बन रही है । मठ के लाउडस्पीकरों के मुँह यूनिवर्सिटी के ओर कर दिए गए हैं ।

अपना गाँव छोड़कर शहर आ बसे वरिष्ठ नागरिक दद्दू के मकान में ये तीनों आपस में आत्मीयता से रहते हैं । दद्दू का उर्दू से और संगीत से प्रेम है । भक्त कवियों के गीत बजते रहते हैं । दद्दू उर्दू भी सिखाते हैं । काश्मीर की साम्प्रदायिकता को एक दृश्य में निर्देशक कीर्ति जैन ने बड़े ही प्रभावी ढंग से दिखाया है — मंदिर में भगवान का दर्शन करने से पहले नाम पूछा जाता है । मुस्लिम वाले व्यक्ति को भगवान का दर्शन नहीं करने दिया जाता । शरत के चेहरे पर दाढ़ी है और हनीफ का चेहरा क्लीन शेव । शरत का नाम लेकर हनीफ मंदिर में श्रुति के साथ प्रवेश करता है । लेकिन शरत को अपना नाम हनीफ बताने पर रोक दिया जाता है । हिन्दू और मुसलमानों के त्योहारों पर आतंक की आहट साफ दिखाई देती है । एक सेमिनार में हनीफ सवाल उठाता है कि वह एक मुसलमान है।देश का जब धर्म के आधार पर बँटवारा होता है तब सारे मुसलमानों को यहाँ से चले जाना चाहिए था । लेकिन जो यहाँ रह गए उन्हीं की देश भक्ति पर शक किया जाता है । जब कोई आतंकवादी घटना घटती है तब मीडिया उसे मुसलामानों से जोड़ देती है । शक की सूई कभी हिंदुओं पर नहीं उठती। शहर का पुलिस प्रशासन भी हिन्दू साम्प्रदायिकता को मदद देता है।बाबरी मस्जिद ढहाये जाने की खबर से शहर में हिंसा फैल जाती है और कर्फ्यू लग जाता है। कर्फ्यू में बाहर निकलने पर दाढ़ी होने के कारण शरत पर पत्थर भी बरसते हैं ।

दद्दू के घर पर भी हिन्दू कट्टरवादी हमला बोलते हैं और घर में मुसलमान रखने के कारण उन पर शारीरिक आक्रमण होता है।

विश्वविद्यालय में भी हनीफ के खिलाफ पोस्टर लगते हैं। विश्वविद्यालय के अन्दर तोड़ फोड़ होती है । पोस्टर में हनीफ को चेतावनी दी जाती है । यहीं पर कागजी बहस करनेवाले विश्वविद्यालय के बुद्धिजीवियों के चहरे से नकाब उठ जाता है। वरीयता के हिसाब से विभाग के अध्यक्ष बननेवाले हनीफ की जगह शरत को बना दिया जाता है। नाटक में प्रश्न उठता है कि दो साम्प्रदायिक शक्तियों के बीच तीसरी धर्म निरपेक्ष शक्तियों की क्या भूमिका होगी ?‘ हमारा शहर उस बरस ’ में धर्म निरपेक्ष शक्तियाँ कमजोर पड़ जाती हैं ।उनके चेहरे पर अपने ही देश में बेगाने बन जाने की यंत्रणादायक स्थिति पूरे माहौल को गंभीर बना देने के कारण कई प्रश्न खड़ा कर देती है। वहीं इस नाटक में श्रुति के माध्यम से रिश्तों की गुत्थियों में जकड़ी नारी मन की दशा को व्यक्त किया गया है। उसे अपने अस्तित्व की चिंता है । श्रुति कहती है ———“ उसके शरीर में अनेक ऐसे रेशे हैं ,जिन्हें वह ढूँढ़ नहीं पाती कि आखिर वह कौन – सा रेशा है। क्या मेरी पहचान के लिए इतना काफी नहीं कि मैं स्वयं हूँ ।”

मेरी पीढ़ी ने सौभाग्य से 1992 के दंगों को नहीं देखा है । प्रेक्षागृह में उपस्थित 99% दर्शक बांगला भाषी थे। एक नहीं चार पीढियों के दर्शक थे । लेकिन अधिकांश दर्शकों ने 1992 में देश में हुए दंगों और अपने शहर में लागू कर्फ्यू को भी देखा था। कलकता की ओर से डॉ. प्रतिभा अग्रवाल ने जब फूलों का गुलदस्ता देकर नाटक की निर्देशक कीर्ति जैन को सम्मानित किया पूरे हाल में खड़े दर्शकों की करतल ध्वनि देर तक गूँजती रही । जब ‘ नान्दीकार ’ की ओर से मुस्लिम पात्र हनीफ को फूलों का गुलदस्ता दिया गया , पूरा हाल देर तक तालियों की गड़गड़ाहट  से सर्द मौसम में गूँजता रहा । तालियों की गड़गड़ाहट इस बात की गवाही दे रही थी कि हमारा शहर उस शहर की तरह नहीं है जहाँ हिन्दू – मुस्लिम में भेद – भाव किया जाता है। आज भी यहाँ मनुष्यता की भावना विद्यमान है और आगे भी रहेगी।यहाँ सभी को समान समझा जाता है।

केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद से हमारे देश में साम्प्रदायिक शक्तियां मजबूत हुई हैं। शिक्षा संस्थाओं पर हमला तेजी से बढ़ा है। देश की सम्पत्ति को अंबानी -अडानी के हाथों बेच दिया जा रहा है और लोग इसके खिलाफ आवाज न उठा सके इसलिए उन्हें धर्म, जाति के नाम पर बाँट दिया जा रहा है। यही स्थिति हमारे पश्चिम बंगाल की भी है। जिस बंगाल की धरती से चंडीदास ने कहा था –

” शुनो रे मानुष भाई,

सबार उपरे मानुष सत्य,

ताहार ऊपरे नाई”

आज उसी बंगाल की धरती पर तृणमूल कांग्रेस अपनी सत्ता को बचाने के लिए साम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा दे रही है। हाल में ही रामनवमी के दिन हावड़ा में भाजपा ने आस्था के नाम पर जुलूस निकालकर दंगा लगवाने की कोशिश की। प्रशासन जानते हुए भी खामोश रहा। लेकिन जब साम्प्रदायिक सदभावना जुलूस निकाला गया तब प्रशासन ने इसे रोकने की भरपूर कोशिश की। गाँव शहरों में तृणमूल के भ्रष्टाचार, काले कारनामों का चिट्ठा जनता के सामने आने लगा है। लाल झंडा मजबूत होने  से लोगों का डर कम होने लगा है। जनता बेझिझक ChorTMC बोलने लगी है।जैसे – जैसे लाल झंडा मजबूत होगा। वैसे-वैसे  तृणमूल कांग्रेस की पाँव तले की जमीन खिसक जायेगी। अगर हमें पश्चिम बंगाल को बचाना है, तो हमें सबसे पहले साम्प्रदायिक शक्तियों की नींव को तोड़ना होगा। तभी जाकर हम अपने समाज में , देश में , भाईचारा और एकता की भावना कायम कर सकेंगे।