आज चाहे देश में कोई भी इसे गंभीरता से न लेता हो, चाहे यह अपना (कटाक्ष करने के लिए भी) यथार्थ खो चुका हो लेकिन 2014 के आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी और भाजपा की कामयाबी में दो करोड़ रोजगार देने के प्रतिवर्ष के नारे (अब जुमला हो गया है) का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एक ऐसा माहौल बना था देश में कि सब नौजवानों सहित उनके परिवारों में आशा की एक किरण जगी थी।

अगर हम याद करें तो मोदी के चुनाव अभियान में युवा और उनका रोजगार केंद्र में था। दूसरा मुख्य नारा था विदेशी धन और किसानों की स्थिति। दरअसल भाजपा ने सही चिन्हित कर लिया था कि भारत नौजवानों का देश है। पुराने मतदाताओं को लुभाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है नए मतदाताओं को आकर्षित करना। तो मोदी जी बन गए नौजवानों के नेता और उनकी आशाओं को जोड़ लिया अपने अभियान के साथ। 

लेकिन पिछले नौ वर्षो में नौजवान न केवल भाजपा के एजेंडे से हाशिये पर गए हैं बल्कि भाजपा अपने चुनावी वादे से न केवल पलटी है बल्कि नौजवानों के भविष्य के खिलाफ एक जंग छेड़ रखी है। अब जब हमारा देश चुनावी वर्ष में प्रवेश कर गया है और इससे पहले कि भाजपा अपनी चुनावी मशीनरी के जरिये देश को फिर से सम्मोहित करते हुए असल मुद्दों से दूर लेकर जाने की प्रक्रिया शुरू कर दे,आइए आकलन करते हैं कि पिछले नौ वर्षो में नरेंद्र मोदी सरकार ने रोजगार, मज़दूरी, मज़दूरों और किसानों की आय जैसे हमारे जीवन के आधारभूत मुद्दों पर क्या नीतियां अपनाई हैं।

भाजपा के पास शुरू से ही रोजगार के मुद्दे पर कोई वैकल्पिक मॉडल या नीति थी ही नहीं। था तो केवल प्रभावी चुनावी प्रचार और मोहक भाषण जो तर्कों से परे नौजवानों को केवल भावुक करते थे/हैं।  यूपीए की जिन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप देश में भयंकर भ्रष्टाचार, गरीबी और बेरोजगारी फैली थी, जिसके खिलाफ भाजपा ने विकल्प पेश करने के नाम पर चुनाव लड़ा था, उन्हीं जनविरोधी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को भाजपा सरकार ने पिछले नौ वर्षो में लागू किया। न केवल लागू किया बल्कि ज्यादा गति और प्रतिबद्धता से सभी लोकतांत्रिक मूल्यों को दरकिनार करते हुए देश की जनता पर थोपा है। जब नीतियां वही थीं तो परिणाम कैसे बदल सकते थे।

देश में बेरोजगारी नई ऊँचाई पर पहुँच गई है। भारत में दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी है और भारत में युवाओं के बीच बेरोजगारी दर बहुत अधिक है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारी की दर 7.45 % तक पहुँच गई है।

सीएमआईई के अनुसार वर्ष 2017-22 के बीच कुल श्रम भागीदारी दर 46% से गिरकर 39.8 % हो गई है। हर वर्ष लाखों लोग काम की आयु में प्रवेश कर रहें हैं। लेकिन उनके लिए रोजगार नहीं है। इसके चलते बहुत से लोगों ने काम ढूंढ़ना ही बंद कर दिया है।

सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के लिए कोचिंग और तैयारी में करोड़ों युवा लगे हुए हैं और केंद्र सरकार इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। अकेले सरकारी विभागों में ही 10 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं| जनवरी 2023 में हमारे देश में रोजगार में लगे हुए लोगों की संख्या केवल 40.9 करोड़ रह गई थी जबकि महामारी के पहले के समय (जनवरी 2020) में काम में लगे हुए लोगों की संख्या 41.1 प्रतिशत थी। 

सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर करने की दिशा में जो कदम सरकार उठा रही है, उससे सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार पाने की युवाओं की आशा ख़त्म हो रही है और युवाओं पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था में अधिकांश नौकरियां असंगठित क्षेत्र में हैं और जो लोग उस क्षेत्र में काम करते हैं, वे अपने मूल अधिकारों के उल्लंघन और जिंदा रहने लायक मजदूरी न मिलने से पीड़ित हैं।

पिछले नौ वर्षो में सरकार की नीतियों ने रोजगार की मूल परिभाषा और चरित्र ही बदल दिया है। अब स्थाई रोजगार जिसमें आर्थिक, मानसिक और सामाजिक सुरक्षा शामिल थी, जिसमे पेंशन के माध्यम से बुढ़ापे की सुरक्षा भी शामिल थी, पुरानी बात हो गई है। 

मोदी जी के नए भारत में ‘फिक्स्ड टर्म’ रोजगार का दौर शुरू हुआ है जिसमे सीमित समय के लिए काम मिलेगा। यह कोई कल्पना की बात नहीं है बल्कि हक़ीक़त बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- अग्निपथ योजना। बहुत से नौजवानों के लिए सेना में भर्ती एक सपना है जिसमें वह देश की रक्षा की नौकरी करते हैं। और देश उनके और उनके परिवार के वर्तमान और भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। लेकिन अब अग्निपथ में सेना में चार साल की नौकरी उनके लिए पूरे जीवन को ही अग्निपथ में तब्दील कर देगी। 

बेरोजगारी और आर्थिक मंदी के इस दौर में मनरेगा की ग्रामीण भारत में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल के हर वर्ष के बजट में यह साफ़ दिखता है कि यह मनरेगा के लक्ष्य को हासिल करने की जरुरत से कोसों दूर है।

इस वर्ष (2023-24) के बजट में भी मनरेगा के लिए केवल 60,000 करोड़ रुपये आबंटित किये जबकि 2023 के लिए संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपये था। अगर हम गौर से देखें तो मनरेगा के लिए बजट लगातार कम हो रहा है। वित्तीय वर्ष 2009 में मनरेगा के लिए बजट कुल बजट का 3.4 प्रतिशत था। मोदी के कार्यकाल के पहले वर्ष में यह आबंटन कुल बजट का 1.98% था लेकिन वर्ष 2023-24 तक पहुंचते ही यह केवल 1.85% रह गया है।

मोदी सरकार का मनरेगा के लिए रुख सबको मालूम है। वह इसका महत्व दरकिनार करके वैश्विक पूँजी और अपने मित्र कॉर्पोरेट घरानों को खुश करने के लिए, इसे कमजोर कर रहे हैं। मनरेगा रहेगा लेकिन एक स्मारक के तौर पर। इसलिए पर्याप्त बजट नहीं दिया जा रहा और मोदी सरकार ने तमाम तरह के प्रयास किये हैं। इसे लागू करने में मुश्किलें पैदा करने के लिए।

केंद्र सरकार ने मनरेगा में काम कर रहे सभी मज़दूरों की हाज़िरी राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली (एन.एम.एम.एस.) से दिन में दो बार अनिवार्य कर दी गई है। हालांकि मंत्रालय के अपने आंकड़ों के अनुसार ही अनिवार्य तौर पर लागू होने के बावजूद 40 प्रतिशत पंचायतों ने इस पर हाज़िरी रिपोर्ट नहीं की है।

अभी हाल ही में सरकार ने एक और फैसला मनरेगा मज़दूरों पर थोपा है जिसके तहत मंत्रालय ने अधिसूचना जारी की है कि 1 फरवरी से मनरेगा मज़दूरों को सभी तरह के भुगतान केवल ‘आधार आधारित भुगतान प्रणाली’ (ABPS) से ही किये जायेंगे। इससे मज़दूरों को बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है।

एक पंचायत में एक समय में चलने वाले कामों की संख्या 20 तक सीमित कर दी गई है। इसके चलते पंचायत के काम की रफ़्तार काफी धीमी हो गई है। जिससे सबको 100 दिन के काम का लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन हो गया है। इसके आलावा सरकार अपनी हठधर्मिता को जारी रखते हुए मनरेगा को विभिन्न जातिगत श्रेणियों अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य के अनुसार लागू करने के निर्णय को वापिस नहीं लिया है।

एक खतरनाक संकेत ग्रामीण विकास मंत्री दे रहे हैं। जो मनरेगा पर सरकार के अगले हमले की तरफ इशारा करता है। ‘द हिन्दू’ अख़बार के अनुसार मंत्री जी ने कहा है कि वह मानते हैं कि संसद में मनरेगा में संशोधन करके मनरेगा मज़दूरी के बजट को 100 केंद्र सरकार द्वारा वहन करने के स्थान पर इसे केंद्र और राज्य सरकारों में 60:40 के अनुपात में बांटना चाहिए। इसके चलते प्रतिवर्ष मनरेगा में काम के दिनों की संख्या कम होती जा रही है। पिछले वर्ष यह कम होकर केवल 45 दिन रह गई है।

बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है धीमी आर्थिक विकास दर और रोजगार विहीन विकास। अगर स्थिति को और ज्यादा साफ समझना हो तो हमें असल मज़दूरी (रियल वेज) का आकलन करना चाहिए। मोदी सरकार के पिछले नौ वर्षों में रियल वेज में वृद्धि दर बहुत ही कम है। वर्ष 2014-15 की कीमतों पर मापी गई मजदूरी कृषि, गैर-कृषि और निर्माण क्षेत्र के मज़दूरों के लिए लगभग स्थिर बनी हुई है।

2014-15 और 2021-22 के बीच, वास्तविक मजदूरी (मुद्रास्फीति को जोड़े बिना) खेत मज़दूरों के लिए 225 से 240 रुपये, गैर कृषि के मज़दूरों के लिए 234 से 245 रुपये और निर्माण क्षेत्र के मज़दूरों के लिए 275-280 रुपये रही। कुल मिलकर प्रतिवर्ष खेत मज़दूरों, गैर कृषि मज़दूरों और निर्माण मज़दूरों की असल मज़दूरी में क्रमश केवल 0.9%, 0.2% और 0.3 % की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।

केवल मज़दूरों की मज़दूरी में ही बढ़ोतरी नहीं रूक गई है बल्कि कृषि आय में कमी आई है, क्योंकि खेती की लागत में वृद्धि हुई है और उत्पादन की कीमतों में आनुपातिक रूप से वृद्धि नहीं हुई है, (और कई मामलों में तो इसमें वास्तव में गिरावट ही आई है)। 10 सितंबर, 2021 को राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा प्रकाशित “ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन, 2019” पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 77वें दौर के अनुसार, खेती से होने वाली प्रति व्यक्ति औसत आय एक दिन में केवल रुपये 27 रूपये या मासिक औसत 816.50 रूपये है।

एक परिवार विभिन्न फसलों की खेती से औसतन केवल 3,798 रूपये, पशुपालन से 1582 रूपये, व्यवसाय से 641 रूपये और मजदूरी या वेतन से 4,063 रूपये और भूमि पट्टे पर देकर केवल 134 रूपये मासिक ही कमाता है। कृषि से होने वाली आय एक कृषक परिवार की कुल आय के एक तिहाई से थोड़ी ही अधिक है। भारतीय अर्थव्यवस्था में किसानों के हाशिए पर जाने का अनुपात इतना पहले कभी नहीं हुआ था|

2013 के सर्वेक्षण के परिणामों की तुलना में कृषि आय वास्तविक रूप से कम हुई है। भाजपा सरकार का दावा है कि 2013 में पिछले सर्वेक्षण के बाद के वर्षों में, औसत किसान परिवार की आय 2019 में 6,442 रुपये से बढ़कर 10,218 रुपये हो गई है।

2013 में एक किसान खेती से 3,081 रुपये कमाता था, जो आधार वर्ष 2012 के मूल्य पर 2,770 रुपये के बराबर था। वर्ष 2019 में फसलों की खेती से किसानों की मासिक आय रूपये 3,798 थी, जो वर्ष 2012 को आधार वर्ष मानने पर 2,645 रूपये होगी। दूसरे शब्दों में, 2013 और 2019 के बीच फसल उत्पादन से आय में वास्तव में लगभग 5 प्रतिशत की गिरावट आई है। ये आंकड़े महामारी और लॉकडाउन से पहले के एक सर्वेक्षण पर आधारित हैं।

लॉकडाउन को मनमाने तरीके से लागू करने के कारण फसल कटाई और विपणन संकट के कारण किसानों के सभी वर्गों को आय का नुकसान हुआ है। नोटबंदी के समय से किसानों और खेत मज़दूरों को आय में भारी नुकसान हो रहा है और यह समस्या महामारी के कारण और बढ़ गई है।

खेती की बढ़ती लागत और गिरती आय ने किसानों को और अधिक कर्जे में धकेल दिया है। 2019 के सर्वेक्षण के अनुसार, 50 प्रतिशत कृषक परिवारों पर औसत बकाया ऋण 74,121 रुपये था। महामारी के दौरान ग्रामीण ऋणग्रस्तता और विनाश में और वृद्धि हुई है।

देश में किसानों, खेत मज़दूरों और दैनिक मज़दूरों की आत्महत्याएं बदस्तूर जारी ही नहीं हैं बल्कि इनमे वृद्धि हुई है। ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) के आंकड़े के अनुसार पिछले 9 वर्षों में लगभग एक लाख किसानों ने आत्महत्या की है।

2014 के बाद से कुल 48,499 किसान और 40,685 खेतिहर मजदूर आत्महत्या करने को मजबूर हुए। इन आंकड़ों में भूमि किराये पर लेने वाले किसानों/बटाईदारों, आदिवासियों और बिना पट्टे वाले दलितों, महिला किसानों, वन भूमि के काश्तकारों और भूमिहीन खेत मज़दूरों द्वारा की जाने वाली हजारों आत्महत्याओं को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि राज्य सरकारें इन्हें किसान आत्महत्याओं के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, केवल वर्ष 2021 में 5,318 किसानों और 5,563 खेत मज़दूरों ने आत्महत्या की है। अर्थव्यवस्था के समग्र संकट का एक नया पहलू दिहाड़ी मजदूरों द्वारा आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या है। वर्ष 2014-21 में 2,35,799 से अधिक दिहाड़ी मजदूरों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया है। किसानों, खेत मज़दूरों और दिहाड़ी मजदूरों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को संयुक्त रूप से लें, तो 2014-21 की अवधि में ये आत्महत्याएं लगभग 3,25,000 की संख्या को छूती हैं।

बेरोजगारी और कम आय का सीधा प्रभाव भोजन की उपलब्धता पर पड़ता है। प्राप्त अनाज उपलब्ध होने के बावजूद भी लोग भूखे रहने के लिए मज़बूर हैं। और कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। इसका परिणाम है कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की रैंकिंग वर्ष 2021 में 121 देशों में से 101 से गिरकर वर्ष 2022 में 107 हो गई है।

इसे ठीक करने के लिए कोई उपाय करने के बजाय, वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार ने भूख-सूचकांक को ही बदनाम करने की कोशिश की है। लेकिन जब वे सत्ता से बाहर थे, तब उन्हें यह सूचकांक स्वीकार्य था। एफ.ए.ओ. के अनुमान के अनुसार, भारत में 22 करोड़ से अधिक लोगों को लगातार भूख का सामना करना पड़ रहा है और 2020 में 62 करोड़ लोगों को मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा। वैश्विक संदर्भ में, अकेले भारत में लगातार भूख से पीड़ित लगभग एक तिहाई लोग और खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे एक चौथाई लोग रहते हैं।

अपने नागरिकों को भाजपा सरकार न रोजगार मुहैया करवा पा रही है और न ही सबके लिए भोजन की व्यवस्था ही कर पा रही ।लेकिन देश के कॉर्पोरेट को मुनाफा कमाने में लगातार मदद कर रही है। पिछले 9 वर्षों में 11 लाख करोड़ रूपये से अधिक के ऋण बट्टे खाते में डाल दिए गए हैं। इन कॉर्पोरेटों को भारी कर रियायतें भी दी गई हैं, जिससे शुद्ध कर संग्रह में लाखों करोड़ रुपये की गिरावट आई है।

13 कंपनियों द्वारा लिए गए लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपयों के निकृष्ट ऋणों को 64 प्रतिशत की भारी कटौतियों के साथ ‘सेटल’ किया गया है। इसका अर्थ है कि बैंकों को केवल 1.61 लाख करोड़ रुपये ही मिलेंगे और उन्हें 2.85 लाख करोड़ रूपये का नुकसान उठाना पड़ेगा।

प्रोत्साहन के नाम पर कॉरपोरेट टैक्स की दर भी 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी कर दी गई है। यह स्थिति उस समय है, जब किसानों या कामकाजी लोगों के अन्य वर्गों द्वारा छोटे ऋणों को अदा करने से चूकने पर उनके खिलाफ संपत्ति कुर्क करने जैसी गंभीर कार्रवाई की जाती है। इन नीतियों ने एक ऐसे परिदृश्य को जन्म दिया है, जिसमें भाजपा के कुछ मुट्ठी भर मित्रों ने भारी मुनाफा कमाया है और महामारी के दौरान भी अपनी संपत्ति को कई गुना बढ़ा लिया है।

इससे देश में असमानता बढ़ रही है। भारत में अरबपतियों की कुल संख्या वर्ष 2020 के 102 से बढ़कर वर्ष 2022 में 166 हो गई है। इसके विपरीत लगभग 23 करोड़ लोग दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबी रेखा के नीचे  रहते हैं। भारत में प्रतिगामी कराधान शासन को ध्यान में रखते हुए रिपोर्ट में बताया गया है कि आय के प्रतिशत के रूप में हमारे देश में नीचे के 50 प्रतिशत लोग अप्रत्यक्ष कराधान पर शीर्ष 10 प्रतिशत की तुलना में 6 गुना अधिक भुगतान करते हैं। खाद्य और गैर-खाद्य आवश्यक वस्तुओं से एकत्र किए गए कुल करों में से 64.3 प्रतिशत नीचे के 50 प्रतिशत लोगों से वसूल किया जाता है। भारत सबसे ज्यादा असमान देशों में से एक है। और मोदी काल में यह असमानता बढ़ती गई है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट; द इंडिया सप्लीमेंट’ से पता चलता है कि भारत की 40 प्रतिशत से अधिक संपत्ति का स्वामित्व इसकी जनसंख्या के मात्र 1 प्रतिशत के पास है। 10 सबसे अमीर भारतीयों की कुल संपत्ति वर्ष 2022 में 27.52 लाख करोड़ रूपये थी और वर्ष 2021 की तुलना में इसमें 32.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा है।

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने पिछले नौ वर्षों के दौरान कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के एजेंडे को आगे बढ़ाया है। देश के संवैधानिक ताने-बाने और लोगों के जीवन पर बड़ा हमला हुआ है। भारतीय जनता सांप्रदायिकता और कॉर्पोरेट लूट के संयुक्त हमले का सामना कर रही है। परजीवी पूंजीवाद सांप्रदायिक शासन का समर्थन करता है और वे दोनों मेहनतकश जनता के शोषण को सुविधाजनक बनाने के लिए एक-दूसरे का समर्थन कर रहे हैं।

देश को मोदी जी ने एक सपना दिखाया था लेकिन पिछले नौ वर्षों में यह सपना केवल चकनाचूर ही नहीं हुआ बल्कि देश की जनता का सामना एक फासीवादी विचार की सरकार से हुआ है। जो देश की जनता की रोजी-रोटी के खिलाफ काम कर रही। कोई भी विकास बिना रोजगार सृजन के अधूरा है।  यह विकास नहीं जनता का विनाश है। अपने अगले चरण में जाते हुए, मोदी जी के तथागथित नए भारत के नए संसद भवन में, जिसकी पहचान लोकतंत्र के प्रतीक नहीं बल्कि राजदंड (सेंगोल) होने जा रहा है, से देश की जनता को क्या ही आशा हो सकती है। इसके लिए पिछले नौ वर्षों के अनुभव से हमने सीखा है कि जनता को लामबंद होना होगा और इस तानाशाह भाजपा को देश की सरकार से बाहर करना होगा।