मख़दूम मोहिउद्दीन या अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मोहियुद्दीन हुजरी,भारत के उर्दू के शायर और मार्क्सवादी राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने हैदराबाद में प्रोग्रेसिव राइटर्स यूनियन की स्थापना की और कॉमरेड एसोसिएशन और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के साथ सक्रिय थे और 1946 -1947 के पूर्व में हैदराबाद राज्य के निज़ाम के खिलाफ तेलंगाना विद्रोह में शामिल थे।

4 फ़रवरी 1908 हैदराबाद के मेडक( मेदक) जिले के अंदोल गाँव में गौस मोहिउद्दीन के घर अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मोहिउद्दीन कुद्री की पैदाइश हुई। 5 साल की कम उम्र में ही पिता के गुजर जाने की वजह से इनकी परवरिश इनके चाचा वशीरुद्दीन ने की। अपने चाचा से ही इन्होंने रूसी इंकलाब के बारे में जाना।

मख़दूम ने उस्मानिया यूनिवर्सिटी से 1934 में बी.ए और 1936 में एम.ए किया और 1939 में सिटी कॉलेज में उर्दू पढ़ाने के लिए लेक्चरर नियुक्त हुए। इससे पहले 1930 में जब कॉमरेड एसोसिएशन की बुनियाद पड़ी तो मख़दूम  इससे जुड़ गए। सिब्ते हसन, अख्तर हुसैन रायपुरी, डॉ.जय सूर्य नायडू, एम नरसिंह राव के साथ मख़दूम ने राइटर एसोसिएशन की बुनियाद हैदराबाद में डाली।इनकी बैठके अक्सर सरोजिनी नायडू के घर में होती थी। कॉमरेड एसोसिएशन के जरिए ही मख़दूम कम्युनिस्टों के संपर्क में आए थे और 1940 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य बने।

1943 में मख़दूम में नौकरी छोड़ दी और मज़दूरों, किसानों के हक की लड़ाई में शामिल हो गए।कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में महान तेलंगाना विद्रोह सन् 1946 के सितंबर माह में शुरू होता है और अक्टूबर 1951 तक चलता है किसानों,मजदूरों के साथ आम लोग और बुद्धिजीवी भी इस आंदोलन में शामिल थे। प्रारंभ में आंदोलन का स्वरूप हड़ताल, जुलूस और धरने तक सीमित था । आंध्रप्रदेश की जुझारू जनता ने अपने संयम को बरकरार रखते हुए तीन हज़ार गाँवों की ग्राम पंचायतों में ग्राम राज्य कायम कर लिया था और निजामों को मुँह छुपा कर भागना पड़ा था।

11 सितंबर 1947 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में रवि नारायण रेड्डी , बी भल्ला रेड्डी  और मख़दूम मोहिउद्दीन ने हथियारबंद मुक्ति संघर्ष का ऐलान किया।इतिहास का यह अप्रिय और क्रूर सच है कि तेलंगाना के ऐतिहासिक किसान संघर्ष को कुचलने के काम केवल अंग्रेज सरकार ने ही नहीं उसके टुकड़ाखोर सामंतों,जमीदारों राज -रजवाड़ों और नवाबों ने भी किया था। कम्युनिस्ट नेता पी सुन्दरैया लिखते हैं ,”4000 कम्युनिस्ट और किसान लड़ाकू मारे गए,10,000 से भी अधिक कम्युनिस्ट और अन्य लोग 3 से 4 साल के लिए जेल में डाल दिए गए। 50,000 से अधिक समय समय पर पकड़ कर सैनिक शिविरों में लाए गए और पीटे गये, उन्हे यातनाएं दी गई। यह क्रम हफ्तों महीनों तक चलता रहा। हजारों महिलाओं को बेइज्जत किया गया। मख़दूम ने तेलंगाना के मुक्ति युद्ध को अपने नज्म ‘तेलंगाना’ में अजर अमर कर दिया है –

 ” दायरे हिन्द का वो रहबर तेलंगाना,

 बना रहा है नयी इक सहर तेलंगाना,

बुला रहा है बसिम्ते – दिगर तेलंगाना,

वो इन्कलाब का पैगंबर तेलंगाना।”

 मख़दूम शायरी की दुनिया में तब आए जब देश में साम्राज्यवाद विरोधी लहर चल रही थी। जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई तो मख़दूम की नज़्म “ये जंग है जंगे आज़ादी” उस वक्त आज़ादी का तराना बन गई। इसी जमाने में कैफ़ी आज़मी की नज़्म “मकान” बेहद मक़बूल हुई थी।’सुर्ख सवेरा’ नाम से 1944 में मख़दूम का पहला शायरी मजमुआ छपा –

” लो सुर्ख सवेरा आता है

आज़ादी का,आज़ादी का

गुलनार तराना गाता है

आज़ादी का, आज़ादी का

देखो परचम लहराता है

आज़ादी का,आज़ादी का “

 1946 में तेलंगाना की लड़ाई में मख़दूम हाथों में कलम तो कंधे पर बंदूक लिए निज़ाम के खिलाफ किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे। वह अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के जरिए आंदोलन में गर्मी पैदा कर देते थे। निज़ाम ने उन पर ₹5000 का इनाम घोषित किया था। निज़ामशाही पर इस शायर का ख़ौफ इतना अधिक था कि हैदराबाद के तत्कालीन शासक मीर उस्मान अली ख़ान (निज़ाम) ने बगावत के लिए लोगों को भड़काने का आरोप लगाकर मख़दूम को जान से मारने का आदेश दिया था।

मख़दूम मानते थे कि प्रेम और युद्ध की कविता अलग अलग नहीं होती। आखिर हम युद्ध भी तो प्रेम के लिए करते हैं और बिना प्रेम के युद्ध भी नहीं कर सकते। मख़दूम सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी शायर थे। उर्दू में रोमांटिक रिवॉल्यूशनरी धारा उनसे शुरू हुई। ग़ज़लों और शायरी से मख़दूम ने क्रांति जगाने का जैसा काम किया, इस तरह पहले किसी ने शायरी को क्रांति, आम आदमी और सड़क से नहीं जोड़ा। सड़क की लड़ाई को वह असेंबली तक ले गए

इतने बड़े बागी शायर को लोग अभी भी एक फिल्मी गीतकार की तरह जानते हैं जबकि सच्चाई यह है कि मख़दूम ने  कभी फिल्मों के लिए नहीं लिखा। वह देश के उन चंद प्रगतिशील शायरों में से है जिनकी पूरी जिंदगी सुर्ख परचम के तले आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद निज़ामशाही के ख़िलाफ़ बग़ावत में गुजरी। लेकिन मख़दूम की रचनाओं की ताकत और लोकप्रियता के कारण फिल्मकारों ने उनकी रचनाओं को फिल्मों में लिया। विमल रॉय ने जब चंद्रधर शर्मा गुलेरी की मशहूर कहानी ‘उसने कहा था ‘ पर इसी नाम से फिल्म बनाई तो उसमें मख़दूम की नज़्म ‘जाने वाले सिपाही से पूछो’ बतौर गीत इस्तेमाल किया था। एक सिपाही के जंग में जाते वक्त उसके घर का माहौल कैसा है वह इस नज़्म में दिखलाई पड़ता है। इस नज़रिए से उर्दू क्या हिंदी में भी शायद ही कोई कविता लिखी गई हो –

“जाने वाले सिपाही से पूछो

वो कहाँ  जा रहा है,

कौन दुखिया है जो गा रही है

भूखे बच्चों को बहला रही है

 लाश जलने की बू आ रही है

 जिंदगी है कि चिल्ला रही है।”

आज़ादी की लड़ाई फिर निज़मों के खिलाफ लड़ाई में मख़दूम जेल में जाते रहे। 1941 में पहली बार वो जेल गए और आज़ाद हिंदुस्तान में भी वह गिरफ्तार हुए। 1951 में वो आख़िरी बार गिरफ्तार हुए। 1952 में जेल से आने के बाद मख़दूम मोहिउद्दीन ने हुजुरनगर से चुनाव लड़ा और हार गए। फिर इसी सीट से उपचुनाव जीते। 1953 में वह एटक (ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) के सदर चुने गए। 1956 में आंध्र प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हुए और विपक्ष के नेता चुने गए।

    मख़दूम के तीन कलेक्शन प्रकाशित हुए हैं पहला 1944 में ‘ सुर्ख सवेरा’ नाम से दूसरा ‘ गुलेत्तर’ 1961 में और तीसरा ‘बिसाते – रक्स’ 1966 में। ‘बिसाते – रक्स’ के लिए ही 1969 में उनको अकेडमी पुरस्कार से नवाजा गया।25 अगस्त 1969 को मख़दूम मोहिउद्दीन की मौत हो गई –

‘हयात ले के चलो काएनात ले के चलो

चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो।’

सारे ज़माने को साथ लेकर चलने वाला शायर, ट्रेड यूनियन लीडर ,किसानों का साथी हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया। उनके नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने अपने आंध्र प्रदेश ऑफिस का नाम रखा और एन.टी. रामा राव की सरकार ने हुसैन सागर के किनारे उनकी मूर्ति लगवाई जहाँ और 34 महान हस्तियों की मूर्तियां लगाई गई है।

        आज भी जब संघर्ष की बात आती है चाहे किसानों का अपनी फसलों के उचित मूल्यों को लेकर संघर्ष हो चाहे मजदूरों का संघर्ष हो या छात्रों का अपनी मांगों को लेकर संघर्ष हो या नौजवानों का तानाशाह सरकार की गलत नीतियों और बेरोजगारी के खिलाफ किसी भी तरह का संघर्ष हो मख़दूम मोहिउद्दीन की नज्में और ग़ज़लें आज भी हर लोगों के जुबान पर रहती है। जो देश के लिए और देश की आवाम के हक के लिए लड़ते हैं वह मर के भी अमर हो जाते हैं और हमेशा याद किए जाते हैं।