प्रेमचन्द न केवल कहानीकार हैं बल्कि उपन्यासकार भी हैं | उनकी लेखनी इतनी प्रखर थी कि समाज के यथार्थ के दर्शन भी साक्षात्कार करा देते थे। इसके साथ ही प्रगतिशील लेखक – संघ की नींव डालने में भी प्रेमचंद का सक्रिय योगदान रहा है। वे भारतीय स्वाधीनता – आन्दोलन के कथाकार थे। उनकी दृष्टि समाज के सभी वर्गों ,सभी स्तरों की जनता की तरफ जाती थी , जो इस आन्दोलन के बहाव में अपनी जड़ता छोड़कर नई तरह की हरकत कर रहे थे।उनकी अदभुत लेखनी ने जनता की मूक भावनाओं को शब्दों में ढाला और इनका सम्पूर्ण साहित्य ही जनता की आवाज बन गया। देश की स्वतंत्रता के प्रति उनमें अगाध प्रेम था, यही कारण था कि जब क्रांतिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने निमर्मता से फाँसी पर लटका दिया तो प्रेमचंद के अंदर का देश प्रेम हिलोरे मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर अपने घर लाये और कमरे की दीवार पर टांग दी। खुदीराम बोस को फाँसी दिये जाने से एक वर्ष पूर्व उन्होंने “दुनिया का सबसे अनमोल रतन ’’ नाम से प्रथम कहानी लिखी थी , जिसके अनुसार “ खून का वह आख़िरी कतरा ,जो वतन की हिफाजत में गिरे ,दुनिया का सबसे अनमोल रतन है ”
प्रेमचन्द को अपने देश की जनता से गहरा प्रेम और सहानुभूति है। जब वह साधारण किसानों और अछूतों का मार्मिक चित्रण करते हैं , तब उनकी सहानुभूति कथा के रचने में साफ झलकती है।प्रेमचंद गरीबी , अंधविश्वास , रूढ़ियों और परम्पराओं को आदर्श कहकर चित्रित नहीं करते । वह दिखलाते हैं कि इतने अँधेरे में भी मनुष्यता का दीपक कैसे जल रहा है , उनकी लौ धनी आदमियों के घर से यहाँ कितनी ऊँची उठ रही है। ‘आहुति ’ कहानी इसका ज्वलंत उदाहरण है । ‘कफन ’में संकलित हिन्दी मासिक पत्रिका हंस, नवम्बर 1930 में प्रकाशित हुई ।
मेरे विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में प्रेमचंद की कहानी ‘आहुति ’ को शामिल किया गया था। यह वह दौर है जब काकोरी कांड के बाद देश के अधिकांश क्रांतिकारी नेता जेलों में बंद थे।भगतसिंह , सुखदेव ,राजगुरु , चन्द्रशेखर आजाद , रामप्रसाद बिस्मिल अशफ़ाक उल्ला खान के साथ भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास में कलकता के बेथून कॉलेज की स्नातक प्रीतिलता वाद्देदार एक – एक कर शहीद हो रहे थे । 1936 के पहले किसानों , मजदूरों और विद्यार्थियों के अखिल भारतीय संगठन नहीं बने थे । भगतसिंह ने एशिया में पहली बार नौजवानों का संगठन ‘भारत नौजवान सभा ’ बनाया था । प्रेमचंद ‘आहुति ’ कहानी के माध्यम से हमें सन्देश देते हैं कि विचारों में चेतना अध्ययन के समय ही आती है। देश को गुलामी से तभी मुक्ति मिल सकती है जब विश्वविद्यालय में पढ़ रहे युवक – युवतियाँ एक साथ मिलकर किसानों – मजदूरों में संगठित चेतना का प्रकाश फैलायें । ’आहुति’ की रूपमणि में प्रीतिलता वाद्देदार की झलक दिखाई पड़ती है ,जिनके नेतृत्व में चटगाँव के ब्रिटिश क्लब पर आक्रमण किया गया था।रूपमणि आजादी के स्वरूप पर विचार व्यक्त करती है ———–“ अगर स्वराज आने पर भी सम्पत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा – लिखा समाज यों ही स्वार्थन्ध बना रहे,तो मैं कहूँगी , ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा । अंग्रेज़ी महाजनों की धन – लोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है । जिन बुराईयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिए हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ायेगी कि वे विदेशी नहीं , स्वदेशी हैं ? कम से कम मेरे लिए तो स्वराज का यह अर्थ नहीं है कि जान की जगह गोविन्द बैठ जाय । मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ , जहाँ कम से कम विषमता को आश्रय न मिल सके ।” प्रेमचंद विश्वविद्यालयों की उन डिग्रियों पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं जो हमें मानसिक गुलाम बनाते हैं । रूपमणि कहती है ——–“ जिन लोगों ने तुम्हें पैरों के नीचे कुचल रखा है , जो तुम्हें कुत्तों से भी नीचे समझते हैं , उन्हीं की गुलामी करने के लिए तुम डिग्रियों पर जान दे रहे हो। तुम इसे अपने लिए गौरव की बात समझो , मैं नहीं समझती ।” कहानी के अंत में रूपमणि के स्वतंत्र व्यक्तित्व के बारे में प्रेमचंद लिखते हैं ——-“ सिद्धान्त के विषय में अपनी आत्मा का आदेश सर्वोपरि होता है ।” प्रेमचंद के निधन के 86 वर्षो बाद आज भारत एक ऐसे समय से गुजर रहा है जब पहली बार इस देश के किसानों के आंदोलन के सामने केन्द्रीय सरकार को झुकना पड़ा ।
प्रेमचंद के साहित्य के किसान आत्महत्या नहीं करते ।आज किसान आत्महत्या कर रहे हैं । एक ओर चमकता भारत है तो दूसरी ओर तड़पता भारत है। ऐसे समय में प्रेमचंद को याद करते हुए हम अपनी आत्म समीक्षा करे कि हम अपनी आत्मा की आवाज को क्या सुन पा रहे हैं ?