“न रोको उन्हें शुभा” हिंदी के लोकप्रिय कथाकार शेखर जोशी का पहला कविता संग्रह है। यह संग्रह 2012 में प्रकाशित हुआ है।कथाकार शेखर जोशी ने अपनी संवेदनाओं को कविता के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की है । उनकी कविताओं में समाज का यथार्थ दिखाई पड़ता है । शेखर जोशी ने ‘ अपनी ओर से’ में लिखा है ——“ कवि यश : प्रार्थी नहीं हूँ । लेकिन कवि, नई कविता , राष्ट्रवाणी , ग्राम्या , साहित्यकार , जनसत्ता , नया पथ , कलम , जनमत , उत्तरा, साप्ताहिक हिन्दुस्तान , भारतीय साहित्य , लहर , वर्तमान साहित्य , ज्ञानोदय , कथन आधारशिला इत्यादि पत्रिकाओं में समय – समय पर प्रकाशित इन कविताओं को संगृहीत करने का एक कारण शायद उन बीते दिनों की स्मृति को दुबारा जीने की इच्छा रही है ।”वीरेन डंगवाल ने भूमिका में लिखा है _”‘ कोसी का घटवार ‘की याद है? एक बेहद संश्लिष्ट और बहुस्तरीय लम्बी कविता जैसी कहानी-पहाड़ की कठिन प्रकृति और कठोर यथार्थ के बीच घटित होता मानवीय अनुभूतियों का एक जटिल लेकिन मर्मस्पर्शी नाटक या कारखाने की ‘बदबू’ ?जो गोया मिटती है तो कुछ चीजों को अमिट बना देती है और ‘दाज्यू ‘जैसे वर्गीय समाज के छिछोरे ढाँचे को ध्वस्त-पस्त करता भावनाओं का एक संयमित ज्वार ही है। अनुभूतियों के संश्लेषण,अंकन की चित्रात्मकता, निगाह की बारीकी और भाषा की बहुस्तरीयता में शेखर जोशी की कहानियाँ बारम्बार कविता के करीब जाती हैं। गोया कविता गुठली की तरह उनकी कहानी के बीचों -बीच छिपी है।

“बीरेन डंगवाल आगे लिखते हैं _” लेकिन,”न रोको उन्हें शुभा ” की कविताओं के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि उनके माध्यम से कवि ने स्वप्न और स्मृतियों से दमकती एक वृहत्तर दुनिया का संधान किया है। प्रकृति,प्रवास, लोकजीवन,उम्र, रिश्ते और प्रेम -सभी इस दुनिया में रिल -मिल गये हैं और एक विलक्षण रसायन रच रहे हैं।”प्रेमचंद की परंपरा को मजबूत करने वाले कथाकार शेखर जोशी की कहानी पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय , बारासात एम. ए. के पाठ्यकम में शामिल नहीं थी । स्कूल में पढ़ाते समय ‘ गलता लोहा’ को पढ़ाने और समझने का मौका मिला । जाति के ऊँच–नीच का फर्क केवल श्रम ही मिटा सकता है । जाति की जगह वर्ग को समझने के लिए यह हिंदी की यादगार कहानी है । मजदूर जीवन का यथार्थवादी जीवंत वर्णन करनेवाले कथाकार शेखर जोशी की कविताओं में भी ‘ कारखाना -1 ’और ‘ कारखाना- 2’ की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण है । वे लिखते हैं –“यह कारखाना है पुर्जों का ताना-बाना हैपुर्जें कुछ बड़े हैंपुर्जें कुछ छोटे हैंपुर्जें कुछ पतले हैंपुर्जें कुछ मोटे हैंमोटों की रगड़ से छोटे कभी जलते हैंअरे भाई ! दुनियां के काम यूँ ही चलते हैंरगड़ कुछ कम होग्रीज दो , तेल दोजिंदगानी ड्रामा हो चार दिन खेल लो ।मन में नफरत हो पर मुँह से राम – राम कहोतीन कौड़ी के आदमी को ‘ माई – बाप सलाम कहो ।पुर्जों की जिन्दगी का इतना ही परिचयपुर्जों की जिन्दगी भी अभिनय ही अभिनय है। ”‘ यदि दे सकें हम ’, ‘ पहली वर्षा के बाद’ , ‘ ग्रीष्मावसान ’, ‘ विदा की बेला ’, ‘ नदी किनारे ’, ‘ मुझे अपने में समेटे ’, ‘ नैनीताल के प्रति ’, ‘ प्रवासी का स्वप्न ’, ‘ वसंताभास ’, ‘ उन सृष्टा अंगुलियों को चूम लूँ ’, ‘ धानरोपाई ’ में पर्वतीय परिवेश के प्रति आत्मीय अभिव्यक्ति है ।‘ न रोको उन्हें शुभा ’ शीर्षक उनकी ‘ अंकित होने दो ’ शीर्षक से लिया गया है ।

वे लिखते हैं ——— “ शुभा ! अभिशप्त हैं पीढ़ियाँ लिखने को कविताएँ बुनने को सपने और अंकित करने को सतरंगी दुनिया । न रोको उन्हें लिखने दो शुभा दीवारों पर नारे ही सही अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास ।”पढ़ते समय नारों के पीछे शब्दों के संघर्ष के इतिहास की याद दिलाती है । भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के मुँह से निकला ‘ इन्कलाब जिंदाबाद ’ आजादी का मन्त्र बन गया था । ‘ मुजफ्फर नगर 94 ’ उत्तराखंड राज्य आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी को ध्वनित करनेवाली कविता है — “ हादसे से लौटकर आई वह औरत माचिस माँगने गई है पड़ोसन से दरवाजे पर खड़ी-खड़ी बतिया रही हैं ………….. माचिस लेने गई थी औरत आग दे आई है । ”‘ पहाड़ों के बर्फ ’ शीर्षक कविता पहाड़ के बर्फ का यथार्थ प्रस्तुत करती है — “ फ्रिज से निकालकर गिलासों में ढाल लेते हैं जिसे रंगीन पानी के साथ चुभला भी लेते हैं कभी – कभी खूब ठंडी-ठंडी होती है